षडविंशत्यधिकशततम (126) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: षडविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद
अब हम लोग इसके प्रभाव को टालने या बदलने में असमर्थ हैं। तुमने जो ऐसा कार्य कर डाला है, इसमें निश्चय ही देव की प्रेरणा है। महाराज! तुमने प्यास से व्याकुल होकर जो मेरे तपोबल से संचित तथा विधिपूर्वक मन्त्र से अभिमन्त्रित जल को पी लिया है, उसके कारण तुम अपने ही पेट से तथाकथित इन्द्रविजयी पुत्र को जन्म दोगे। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये हम तुम्हारी इच्छा के अनुरूप अत्यन्त अदभुत यज्ञ करायेंगे, जिससे तुम स्वयं भी शक्तिशाली रहकर इन्द्र के समान पराक्रमी पुत्र को उत्पन्न कर सकोगे और गर्भधारणजनित कष्ट का भी तुम्हें अनुभव न होगा’। तदनन्तर पूरे सौ वर्ष बीतने पर उन महात्मा राजा युवनाश्व की बायीं कोख फाड़कर एक सूर्य के समान महातेजस्वी बालक बाहर निकला तथा राजा की मृत्यु नहीं हुई। तत्पश्चात महातेजस्वी इन्द्र उस बालक को देखने के लिये वहाँ आये। उस समय देवताओं ने महेन्द्र से पूछा- ‘यह बालक क्या पीयेगा।' तब उन्होंने अपनी अगुंली बालक के मुँह में डाल दी ओर कहा- ‘माम् अयं धाता‘ अर्थात 'यह मुझे ही पीयेगा।’ वज्रधारी इन्द्र के ऐसा कहने पर इन्द्र आदि सब देवताओं ने मिलकर उस बालक का नाम 'मान्धाता' रख दिया। राजन इन्द्र की दी हुई प्रदेशिनी (तर्जनी अंगुली का रसास्वादन) करके वह महातेजस्वी शिशु तेरह बित्ता बढ़ गया। महाराज उस समय शक्तिशाली मान्धाता के चिन्तन करने मात्र से ही धनुर्वेद सहित सम्पूर्ण वेद और दिव्य अस्त्र ( ईश्वर की कृपा से उपस्थित हो गये)। आजगव नामक धनुष, सींग के बने हुए बाण और अभेद्य कवच- सभी तत्काल उनकी सेवा में आ गये। भारत! साक्षात देवराज इन्द्र ने मान्धाता का राज्याभिषेक किया। भगवान विष्णु ने जैसे तीन पगों द्वारा त्रिलोकी को नाप लिया था, उसी प्रकार मान्धाता ने भी धर्म के द्वारा तीनों लोकों को जीत लिया। उन महात्मा नरेश का शासन चक्र सर्वत्र बेरोक-टोक चलने लगा। सारे रत्न राजर्षि मान्धाता के यहाँ स्वयं उपस्थित हो जाते थे। युधिष्ठिर! इस प्रकार उनके लिये वह सारी पृथ्वी धन-रत्नों से परिपूर्ण थी। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणा वाले नाना प्रकार के बहुसंख्यक यज्ञों द्वारा भगवान की समाराधना की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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