महाभारत वन पर्व अध्याय 122 श्लोक 18-29

द्वाविंशत्‍यधि‍कशततम (122) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वाविंशत्‍यधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद


'तब सम्पूर्ण सैनिकों ने उनसे कहा- ‘महाराज! हम नहीं जानते कि किसके द्वारा उनका अपराध हुआ है। आप अपनी रुचि के अनुसार सभी उपायों द्वारा इसका पता लगावें।’

तब राजा शर्याति ने साम और उग्रनीति के द्वारा सभी सुहृदों से पूछा; परंतु वे भी इसका पता न लगा सके। तदनन्तर सुकन्या ने सारी सेना को मलावरोध के कारण दु:ख से पीड़ि‍त और पिता को भी चिन्तित देख इस प्रकार कहा- ‘तात! मैंने इस वन में घूमते समय एक बांबी के भीतर कोई चमकीली वस्तु देखी, जो जुगनू के समान जान पड़ती थी। उसके निकट जाकर मैंने उसे कांटे से बींध दिया।‘

यह सुनकर शर्याति तुरंत ही बांबी के पास गये। वहाँ उन्होंने तपस्या में बढ़े-चढ़े वयोवृद्ध महात्मा च्यवन को देखा और हाथ जोड़कर अपने सैनिकों का कष्‍ट निवारण करने के लिये याचना की- ‘भगवन! मेरी बालिका ने अज्ञानवश जो आपका अपराध किया है, उसे आप कृपापूर्वक क्षमा करें।’ उनके ऐसा कहने पर भृगुनन्दन च्यवन ने राजा से कहा- ‘राजन! तुम्हारी इस पुत्री ने अहंकारवश अपमानपूर्वक मेरी आंखें फोड़ी हैं, अत: रूप और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा लोभ और मोह के वशीभूत हुई तुम्हारी इस कन्या को पत्नी रूप में प्राप्त करके ही मैं इसका अपराध क्षमा कर सकता हूँ। भूपाल! यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूं’।

लोमश जी कहते हैं- च्यवन ऋषि‍ का यह वन सुनकर राजा शर्याति ने बिना कुछ विचार किये ही महात्मा च्यवन को पुत्री दे दी। उस राजकन्या को पाकर भगवान च्यवन मुनि प्रसन्न हो गये। तत्पश्चात उनका कृपाप्रसाद प्राप्त करके राजा शर्याति सेना सहित सकुशल अपनी राजधानी को लौट आये। सुकन्या भी तपस्वी च्यवन को पति रूप में पाकर प्रतिदिन प्रेमपूर्वक तप और नियम का पालन करती हुई उनकी परि‍चर्या करने लगी। सुमुखी सुकन्या किसी के गुणों में दोष नहीं देखती थी। वह विविध अग्नियों और अतिथियों की सेवा में तत्पर हो शीघ्र ही महर्षि‍ च्यवन की अराधना में लग गयी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में सुकन्योपाख्यान विषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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