महाभारत वन पर्व अध्याय 11 श्लोक 22-38

एकादश (11) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 22-38 का हिन्दी अनुवाद


उस समय परम बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर ने उससे पूछा- ‘तुम कौन हो, किसके पुत्र हो अथवा तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पादन किया जाये? यह सब बताओ।’

तब उस राक्षस ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘मैं बक का भाई हूँ, मेरा नाम किर्मीर है, इस निर्जन काम्यकवन में निवास करता हूँ। यहाँ मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है। यहाँ आये हुए मनुष्यों को युद्ध में जीतकर सदा उन्हीं को खाया करता हूँ। तुम लोग कौन हो? जो स्वयं ही मेरा आहार बनने के लिये मेरे निकट आ गये? मैं तुम सब को युद्ध में परास्त करके निश्चिन्त हो अपना आहार बनाऊँगा।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! उस दुरात्मा की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे गोत्र एवं नाम आदि सब बातों का परिचय दिया। युधिष्ठिर बोले- 'मैं पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हूँ। सम्भव है, मेरा नाम तुम्हारे कानों में भी पड़ा हो। इस समय मेरा राज्य शत्रुओं ने जुए में हरण कर लिया है। अतः मैं भीमसेन, अर्जुन आदि सब भाइयों के साथ वन में रहने का निश्चय करके तुम्हारे निवास स्थान इस घोर काम्ययकवन में आया हूँ।'

विदुर जी कहते हैं- राजन! जब किर्मीर ने युधिष्ठिर से कहा- ‘आज सौभाग्यवश देवताओं ने यहाँ मेरे बहुत दिनों के मनोरथ की पूर्ति कर दी। मै प्रतिदिन हथियार उठाये भीमसेन का वध करने के लिये सारी पृथ्वी पर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था। आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाई का हत्यारा है, मैं बहुत दिनों से इसकी खोज में था। राजन! इसने (एकचक्रा नगरी के पास) वैत्रकीयवन में ब्राह्मण का कपट वेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्याबल का आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुर का वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था।

इसी प्रकार वन में रहने वाले मेरे प्रिय मित्र हिडिम्ब को भी इस दुरात्मा ने मार डाला और उसकी बहिन का अपहरण कर लिया। ये सब बहुत पहले की बातें हैं। वही यह मूढ़ भीमसेन हम लोगों के घूमने-फिरने की बेला में आधी रात के समय मेरे इस गहन वन में आ गया है। ‘आज इससे मैं उस पुराने वैर का बदला लूँगा और इसके प्रचुर रक्त से बकासुर का तर्पण करूँगा। आज मैं राक्षसों के लिये कण्टकरूप इस भीमसेन को मारकर अपने भाई तथा मित्र के ऋण से उऋण हो परम शान्ति प्राप्त करूँगा। युधिष्ठिर! यदि पहले बकासुर ने भीमसेन को छोड़ दिया, तो आज मैं तुम्हारे देखते-देखते इसे खा जाऊँगा। जैसे महर्षि अगस्त्य ने वातापि नामक महान राक्षस को खाकर पचा लिया, उसी प्रकार मैं भी इस महाबली भीम को मारकर खा जाऊँगा और पचा लूँगा।'

उसके कहने पर धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने कुपित हो उस राक्षस को फटकारते हुए कहा- ‘ऐसा कभी नहीं हो सकता।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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