महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 64 श्लोक 65-86

चतुःषष्टितम (64) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: चतुःषष्टितम अध्याय: श्लोक 65-86 का हिन्दी अनुवाद


'देखो, हर्ष में भरे हुए पाण्डवों का महान सिंहनाद सुनायी पड़ता है और भगदत्त के डरे हुए हाथी के रोने की ध्वनि भी बड़े जोर-जोर से कानों मे आ रही है। तुम सब लोगों का कल्याण हो। हम राजा भगदत्त की रक्षा करने के लिये वहाँ चले; अन्यथा अरक्षित होने पर वे समर-भूमि में शीघ्र ही प्राण त्याग देंगे। महापराक्रमी वीरो! जल्दी करो। विलम्ब से क्या लाभ? हमें जल्दी चलना चाहिये; क्योंकि वह संग्राम अत्यन्त भयंकर तथा रोमांचकारी है। राजा भगदत्त कुलीन, शूरवीर, हमारे भक्त और सेनापति है। अतः अच्युत! हमें उनकी रक्षा अवश्य करनी चाहिये।'

भीष्म का यह वचन सुनकर सभी महारथी द्रोणाचार्य और भीष्म को आगे करके भगदत्त की रक्षा के लिये बड़े वेग से उस स्थान पर गये, जहाँ भगदत्त थे। उन्‍हें जाते देख युधिष्ठिर आदि पाण्‍डवों तथा पांचालों ने भी शत्रुओं का पीछा किया। उन सेनाओं को आते देख प्रतापी राक्षसराज घटोत्कच ने बड़े जोर से सिंहनाद किया, मानो वज्र फट पड़ा हो। घटोत्कच की वह गर्जना सुनकर तथा जूझते हुए हाथियों को देखकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने पुनः द्रोणाचार्य से कहा- 'मुझे इस समय दुरात्मा घटोत्कच के साथ युद्ध करना अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वह बल और पराक्रम से सम्पन्न है और इस समय उसे प्रबल सहायक भी मिल गये हैं। ऐसी दशा में साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी उसे युद्ध में पराजित नहीं कर सकते। यह प्रहार करने में कुशल तथा भेदने में सफल है। इधर हम लोगों के वाहन थक गये हैं। पाण्‍डवों और पांचालों के द्वारा दिनभर क्षत-विक्षत होते रहे हैं। इसलिये विजय से सुशोभित होने वाले पाण्‍डवों के साथ इस समय युद्ध करना मुझे पंसद नहीं आता। आज युद्ध का विराम घोषित कर दिया जाये। कल सबेरे हम लोग शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे।' पितामह भीष्म की यह बात सुनकर कौरवोंं ने उपायपूर्वक युद्ध से हट जाना स्वीकार कर लिया; क्योंकि उस समय वे घटोत्कच के भय से पीड़ित थे।

भारत! कौरवों के निवृत हो जाने पर विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डव बारबांर सिंहनाद करने और शंख बजाने लगे। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार उस दिन दिनभर घटोत्कच को आगे करके कौरवों और पाण्‍डवों का युद्ध चलता रहा। राजन्! तदनन्तर निशा के प्रारम्भकाल में पाण्‍डवों से पराजित होकर कौरव लज्जित हो अपने शिविर को गये। महारथी पाण्‍डवों के शरीर भी युद्ध में बाणों से क्षत-विक्षत हो गये थे, तथापित वे प्रसन्नचित्त होकर अपने शिविर को लौटे। महाराज! भीमसेन और घटोत्कच को आगे करके परस्पर एक दूसरे की प्रशंसा करते हुए पाण्डव सैनिक बड़ी प्रसन्नता के साथ नाना प्रकार के सिंहनाद करते हुए गये। उनकी उस गर्जना के साथ विविध वाद्यों की ध्वनि तथा शंखों के शब्द भी मिले हुए थे। शत्रुओं को संताप देने वाले श्रेष्ठ नरेश! महात्मा पाण्डव गर्जते, पृथ्वी को कँपाते और आपके मर्मस्थानों पर वोट पहुँचाते हुए निशाकाल में शिविर को ही लौट गये।

अपने भाईयों के मारे जाने से राजा दुर्योधन अत्यन्त दीन हो रहा था। वह नेत्रों के आंसू बहाता हुआ शोक से व्याकुल हो दो घड़ी तक भारी चिंता में पड़ा रहा। वह शिविर की यथायोग्य सारी आवश्यक व्यवस्था करके भाईयों के मारे जाने से दुखी एवं शोकसंतप्त हो चिंता में डूब गया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्‍तर्गत भीष्मवध पर्व में चौथे दिन का युद्धविराम विषयक चौसठवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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