महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 52 श्लोक 50-72

द्विपंचाशत्तम (52) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 50-72 का हिन्दी अनुवाद


महाराज! तदनन्तर प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ भीष्म ने कुपित होकर तीन बाणों से भगवान श्रीकृष्ण की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। राजन्! भीष्म जी के धनुष से छूटे हुए उन बाणों से विद्ध होकर भगवान मधुसूदन रणभूमि में रक्तरंजित हो खिले हुए पलाश के वृक्ष के समान शोभा पाने लगे। श्रीकृष्ण को घायल हुआ देख अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने तीखे सायकों द्वारा कुरुकुल वृद्ध भीष्म के सारथि को विदीर्ण कर डाला। इस प्रकार वे दोनों वीर एक दूसरे के वध के लिये पूरा प्रयत्न कर रहे थे तथापि वे युद्धभूमि में परस्पर अभिसंधान (घातक प्रहार) करने में सफल न हो सके। वे दोनों अपने सारथि की शक्ति तथा शीघ्रकारिता के कारण नाना प्रकार के विचित्र मण्डल, आगे बढ़ने और पीछे हटने आदि पैंतरे दिखाने लगे।

राजन! दोनों ही एक दूसरे के प्रहारों में छिद्र ढूढ़ने के लिये सर्तक थे। वे बारंबार छिद्रोन्वेषण के मार्ग में स्थित हो छिद्र देखने के लिये संलग्न रहते थे। वे दोनों महारथी सिंहनाद से मिला हुआ शंखनाद करते और धनुष की टंकार फैलाते रहते थे। उनकी शंखध्वनि तथा रथ के पहियों की घरघराहट से पृथ्वी सहसा विदीर्ण-सी होकर कांपने और आर्तनाद करने लगी। भरतश्रेष्ठ! वे दोनों वीर बलवान्‌, युद्ध में दुर्जय तथा एक दूसरे के अनुरूप थे। अत: ढूढ़ने पर भी कोई उनमें से किसी का अन्तर न देख सका। उस समय कौरवों ने भीष्म को तालध्वज आदि चिह्न मात्र से ही पहचाना। इसी प्रकार पाण्डुपुत्रों ने भी कपिध्वज आदि चिह्न मात्र से ही पार्थ की पहचान की। भारत! उस संग्राम में उन दोनों श्रेष्ठ पुरुषों के वैसे पराक्रम को देखकर सम्पूर्ण प्राणी बड़े विस्मय में पड़ गये। भरतनन्दन! जैसे कोई धर्मनिष्ठ पुरुष में कहीं कोई पाप नहीं देख पाता, उसी प्रकार कोई भी रणक्षेत्र में उन दोनों योद्धाओं का छिद्र नहीं देख पाता था। दोनों ही संग्रामभूमि में एक दूसरे के बाणसमूहों से आच्छादित होकर अदृश्य हो जाते और उन्हे छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही प्रकाश में आ जाते थे।

वहाँ आये हुए देवता, गन्धर्व, चारण और महर्षिगण उन दोनों का पराक्रम देखकर आपस में कहने लगे कि ये दोनों महारथी वीर रोषावेश में भरे हुए है; अतः ये देवता, असुर और गन्धर्वों सहित सम्पूर्ण लोकों के द्वारा भी किसी प्रकार जीते नहीं जा सकते। वह अत्यन्त अद्भुत युद्ध यह सम्पूर्ण लोकों के लिये आश्चर्यजनक घटना है। भविष्य में ऐसे युद्ध होने की किसी प्रकार की सम्भावना नहीं है। बुद्धिमान पार्थ रणभूमि में भविष्य को कदापि जीत नहीं सकते क्योंकि वे समरभूमि में रथ, घोडे़ ओर धनुषसहित उपस्थित हो बाणों को बीज की भाँति बो रहे है। इसी प्रकार भीष्म भी युद्ध में देवताओं के लिये भी दुर्जय, गाण्डीवधारी पाण्डुपुत्र अर्जुन को जीतने में समर्थ नहीं हो सकते। यदि ये दोनों लड़ते रहे तो जब तक यह संसार स्थित है, तब तक इन दोनों का यह युद्ध समानरूप से ही चलता रहेगा। प्रजानाथ! इस प्रकार रणभूमि में भीष्म और अर्जुन की स्तुति प्रशंसा से युक्त बहुत सी बातें इधर-उधर लोगों के मुँह से निकलती और सुनायी देती थी।

संजय कहते हैं- भारत! उस समय वहाँ उन दोनों वीरों के पराक्रम करते समय युद्धस्थल में आपके और पाण्डवपक्ष के योद्धा भी एक दूसरे को मार रहे थे। तीखी धार वाले खड्गों, चमचमाते हुए फरसों, अन्य अनेक प्रकार के बाणों तथा भाँति-भाँति शस्त्रों से दोनों सेनाओं के शूरवीर एक दूसरे को मारते थे। राजन्! यहाँ एक और इस प्रकार भयानक तथा अत्यन्त दारुण युद्ध चल रहा था, वही दूसरी और द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न में भयंकर मुठभेड़ हो रही थी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्मवध पर्व भीष्म और अर्जुन का युद्ध विषयक बावनवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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