महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 47 श्लोक 22-43

सप्तचत्वारिंश (47) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! उस समय समरभूमि प्रत्यन्तपूर्वक अपने बाणों द्वारा भीष्म को पीड़ा देते हुए अभिमन्यु की भुजाओं का महान् बल प्रत्यक्ष देखा गया। तब भीष्म ने भी उस पराक्रमी वीरपथ बाणों का प्रहार किया परन्तु अभिमन्यु ने रणभूमि में भीष्म के धनुष से छूटे हुए समस्त बाणों को काट डाला। अभिमन्यु के बाण अमोध थे। उस वीर ने समरांगण में नौ बाणों द्वारा भीष्म के ध्वज को काट गिराया। यह देख सब लोग उच्च स्वर में कोलाहल कर उठे। भरतनन्दन! वह रजतनिर्मित, स्वर्णभूषित अत्यन्त ऊंचा ताल-चिह्न से युक्त भीष्म का ध्वज सुभद्राकुमार के बाणों से छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। भरतश्रेष्ठ! अभिमन्यु के बाणों से कटकर गिरे हुए उस ध्वज को देखकर भीमसेन ने सुभद्राकुमार का हर्ष बढ़ाते हुए उच्चस्वर से गर्जना की। तब महाबली भीष्मसेन ने उस अत्यन्त भयंकर संग्राम में बहुत-से महान् दिव्यास्त्र प्रकट किये। तब अमेय आत्मबल से सम्पन्न प्रपितामह भीष्मसेन सुभद्राकुमार पर हजारों बाणों की वर्षा की। वह एक अद्भुत-सी घटना प्रतीत हुई। राजन्! तब पुत्र सहित विराट, द्रुपदकुमार धृष्टद्यम्न, भीमसेन, पांचों भाई केकय-राजकुमार तथा सात्यकि-ये पाण्डव-पक्ष के महान् धनुंधर दस महारथी अभिमन्यु रक्षा के लिये रथों द्वारा तुरन्त वहाँ दौडे़ आये।

शान्तनुनन्दन भीष्म ने रणभूमि में वेगपूर्वक आक्रमण करने वाले उन दसों महारथियों में से धृष्टद्युम्न को तीन और सात्यकि को नौ बाणों से गहरी चोट पहुँचायी। फिर धनुष को पूरी तरह से खींचकर छोड़े हुए एक पंखयुक्त तीखे बाण से भीमसेन की ध्वजा काट डाली। नरश्रेष्ठ! भीमसेन का वह सुवर्णमय सुन्दर ध्वज सिंह के चिह्न से युक्त था वह भीष्म के द्वारा काट दिये जाने पर रथ से नीचे गिर पड़ा। तब भीमसेन उन रणक्षेत्र में शान्तनुनन्दन भीष्‍म को तीन बाणों से घायल करके कृपाचार्य को एक और कृतवर्मा को आठ बाणों से बेध दिया। इसी समय जिसने अपनी सूंड को मोड़कर मुख में रख लिया था, उस दन्तार हाथी पर आरूढ़ हो विराटकुमार उत्तर ने मद्रदेश के स्वामी राजा शल्य पर धावा किया। वह गजराज बड़े वेग से शल्य के रथ की ओर झपटा। उस समय शल्य ने अपने बाणों द्वारा उसके अप्रतिम वेग को रोक दिया। इससे वह गजेन्द्र शल्य पर अत्यन्त कुपित हो उठा और अपना एक पैर रथ के जुए पर रखकर उसे अच्छी वहन करने वाले चारों विशाल घोड़ों को मार डाला। घोड़ों के मारे जाने पर भी उसी रथ पर बैठे हुए मद्रराज शल्य ने लोहे की बनी हुई एक शक्ति चलायी, जो सर्प के समान भयंकर और राजकुमार उत्तर का अन्त करने वाली थी। उस शक्ति ने उनके कवच को काट दिया। उसकी चोट से उन पर अत्यन्त मोह छा गया। उनके हाथ से अंकुश और तोमर छूटकर गिर गये और वे भी अचेत होकर हाथी की पीठ से पृथ्वी पर गिर पड़े।

इसी समय शल्य हाथ में तलवार लेकर अपने श्रेष्ठ रथ से कूद पड़े और उसी के द्वारा उस गजराज की विशाल सूंड को उन्होंने काट गिराया। सैकड़ों बाणों से उसके मर्म विद्ध हो गये थे और उसकी सूंड भी काट डाली गयी। इससे भयंकर आर्तनाद करके वह गजराज भूमि पर गिरा और मर गया। नरेश्वर! वह पराक्रम करके मद्रराज शल्य तुरंत ही कृतवर्मा के तेजस्वी रथ पर चढ़ गये। अपने भाई उत्तर को मारा गया और शल्य को कृतवर्मा के साथ रथ पर बैठा हुआ देख विराटपुत्र श्वेत क्रोध से जल उठे, मानो अग्नि में घी की आहुति पड़ गयी हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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