महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 46 श्लोक 21-39

षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद


उसके द्वारा चलाये गये सुवर्णभूषित निर्मल और तेज धार वाले शीघ्रगामी महाप्रास (भाले) सर्पों के समान गिर रहे थे। कितने ही वीर घुड़सवार शीघ्रगामी अश्वों द्वारा धावा करके बड़े-बड़े रथों पर कुछ पड़ते और रथियों के मस्तक काट लेते थे। इसी प्रकार एक-एक रथी झुकी हुई गांठ वाले भल्ल नामक बाणों द्वारा निशाने पर आये हुए बहुत से घुड़सवारों का संहार कर डालता था। नूतन मेघों के समान शोभा पाने वाले स्वर्णभूषित मतवाले हाथी बहुत-से-घोड़ों को सूंडों से झटककर पैरों से ही रौद डालते थे। कितने ही हाथी प्रासों की चोट खाकर कुम्भस्थल और पाश्वभागों के विदीर्ण हो जाने पर अत्यंत आतुर हो घोर चिग्घाड़ मचा रहे थे। बहुत से बड़े-बड़े हाथी कितने ही घुड़सवारों सहित घोड़ों को पैरों से कुचलकर सहसा भयंकर युद्ध में फेंक देते थे। कितने ही हाथी अपने दांतों के अग्रभाग से घुड़सवारों सहित घोड़ों को उछाल कर ध्वजों सहित रथसमूहों को पैरो तले रौंदते हुए रणभूमि में विचर रहे थे।

वहाँ कितने ही महान् गज अत्यन्त मदोन्मत्त तथा पुरुष होने के कारण सूंडों और पैरों से घोड़ों और घुड़सवारों का संहार कर डालते थे। युद्ध में घुड़सवारों और गजारोहियों के चलाये हुए निर्मल, तीक्ष्ण तथा सर्पों के समान भयंकर शीघ्रगामी बाण हाथियों के ललाटों, अन्यान्य अंगों तथा पसलियों पर चोट करते थे। वीरों की भुजाओं से चलायी हुई निर्मल शक्तियां, मनुष्यों और घोड़ों काया तथा लोहमय कवचों को भी विदीर्ण करके धरती पर गिर जाती थी। प्रजानाथ! वहाँ गिरते समय वे भयंकर शक्तियां बड़ीभारी उल्काओं के समान प्रतीत होती थी। जो चमकीली तलवार पहले चितकवरे अथवा साधारण व्याघ्र-चमकी बनी हुई म्यानों में बंद रहती थी, उन्हें उन म्यानों से निकालकर उनके द्वारा वीरपुरुष रणभूमि में विपक्षियों का वध कर रहे थे। कितने ही योद्धा ढाल, तलवार तथा फरसों से निर्भय होकर शत्रु के सम्मुख जाने, क्रोधपूर्वक दांतों से ओठ दबाकर आक्रमण करने तथा बायीं पसली पर चोट करके उसे विदीर्ण करने आदि के पैंतरे दिखाते हुए शत्रुओं पर टूट पड़ते थे। प्रत्येक शब्द की ओर गमन करने वाले कितने ही हाथी घोड़ों सहित रथों को अपनी सूंडों से खींचकर उन्हें लिये-दिये सम्पूर्ण दिखाओं में दौड़ रहे थे। कुछ मनुष्य बाणों से विदीर्ण होकर पड़े थे, कितने ही फरसों से छिन्न-भिन्न हो रहे थे, कितनों को हाथियों ने मसल डाला था, कितने ही घोड़ों की टाप से कुचल गये थे, कितनों के शरीर रथ के पहियों से कट गये थे और कितने ही कुबरों से काट डाले गये थे।

राजन्! रणभूमि में जहाँ-तहाँ गिर हुए अगणित मनुष्य अपने कुटुम्बीजनों को पुकार रहे थे। कुछ बेटों को, कुछ पिता को, कुछ भाई-बन्धुओं को, कुछ मामा-भानजों को और कुछ लोग दूसरों-दूसरों के नाम ले-लेकर विलाप कर रहे थे। भारत! बहुतों की आंतें बाहर निकलकर बिखर गयी थी, जांघें टूट गयी थी, कितनो की बांहें कट गयी थी, बहुतों की पसलियां फट गयी थी और कितने ही घायल अवस्था में प्यास से पीड़ित हो जीवन के लोभ से रोते दिखाई देते थे। राजन्! कुछ लोग धरती पर अधमरे पड़े थे। उनमें जीवन की शक्ति बहुत थोड़ी रह गयी थी और वे पिपासा से पीड़ित हो युद्धभूमि में ही जल की खोज कर रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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