महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 6-12

द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

Prev.png

महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 6-12 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 18


इसलिये हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिये यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।[1] सम्बन्ध- अब तीन श्लोकों में क्रम से उपर्युक्त तीन प्रकार के त्यागों के लक्षण बतलाते हैं- (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परंतु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है।[2] इसलिये मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है।[3] जो कुछ कर्म है वह सब दुःखस्वरूप ही है-ऐसा समझ कर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दे,[4] तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता।[5] हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है।[6]

सम्बन्ध- उपयुक्त प्रकार से सात्त्विक त्याग करने वाले पुरुष का निषिद्ध और काम्यकर्मों स्वरूप से छोड़ने में और कर्तव्य कर्मों के करने में कैसा भाव रहता है, इस जिज्ञासा पर सात्त्विक त्यागी पुरुष की अंतिम स्थिति के लक्षण बतलाते हैं’- जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता[7] और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता,[8] वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है।[9] क्‍योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है;[10] इसलिये जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है।[11] कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात् अवश्य होता है;[12] किंतु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता।[13]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान् के कथन का भाव यह है कि ऊपर विद्वानों के मतानुसार जो त्याग और संन्यास के लक्षण बतलाये गये हैं, वे पूर्ण नहीं है क्‍योंकि केवल काम्य कर्मों का स्वरूप त्याग कर देने पर भी अन्य नित्य-नैमित्तिक कर्मों में और उनके फल में मनुष्य की ममता, आसक्ति और कामना रहने से वे बन्धन हेतु बन जाते हैं। सब कर्मों के फल की इच्छा का त्याग कर देने पर भी उन कर्मों में ममता और आसक्ति और रह जाने से वे बन्धनकारक हो सकते है। अहंता, ममता, आसक्ति और कामना त्याग किये बिना यदि समस्त कर्मों को दोषयुक्त समझकर कर्तव्यकर्मों का भी स्वरूप त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता क्‍योंकि ऐसा करने पर वह विहित कर्म के त्यागरूप प्रत्यवाय का भागी होता है। इसी प्रकार यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को करते रहने पर भी यदि उसमें आसक्ति और उनके फल की कामना का त्याग न किया जाय तो वे बन्धन के हेतु बन जाते है। इसलिये उन विद्वानों के बतलाये हुए लक्षणों वाले संन्यास और त्याग से मनुष्य कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता; क्‍योंकि कर्म स्वरूपतः बन्धनकारक नहीं है, उनके साथ ममता, आसक्ति और फल का सम्बन्ध ही बन्धनकारक है। अतः कर्मों में जो ममता और फलासक्ति का त्याग है, वही वास्तविक त्याग है; क्‍योंकि इस प्रकार कर्म करने वाला मनुष्य समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त होकर परमपद्र को प्राप्त हो जाता है।
  2. वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये यज्ञ, दान, तप, अध्ययन-अध्यापन, उपदेश, युद्ध, प्रजापालन, पशुपालन, कृषि, व्यापार, सेवा और खान-पान आदि जो-जो कर्म शास्त्रों में अवश्यकर्तव्य बतलाये गये हैं, उसके लिये वे नियत कर्म है। ऐसे कर्मों का स्वरूप से त्याग करने वाला मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन न करने के कारण पाप का भोगी होता है; क्‍योंकि इससे कर्मों की परम्परा टूट जाती हैं; क्‍योंकि इससे कर्मों की परम्परा टूट जाती है और समस्त जगत में विफल हो जाता है। (गीता 3/23/24) इसलिये नियत कर्मों का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है।
  3. कर्तव्य कर्म के त्याग को भूल से मुक्ति का हेतु समझकर त्याग करना मोहपूर्वक होने के कारण तामस त्याग है; इसलिये उपर्युक्त त्याग ऐसा त्याग नहीं है; जिसके करने से मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। यह तो प्रत्यवाय का हेतु होने से उल्‍टा अधोगति को ले जाने वाला है।
  4. कर्तव्य कर्मों के अनुष्ठान में मन, इन्द्रिय और शरीर को परिश्रम होता है; अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं; बहुत सी साम्रगी एकत्र करनी पड़ती है; शरीर के आराम का त्याग करना पड़ता है; व्रत,उपवास आदि करके कष्ट सहन करना पड़ता है और बहुत-से भिन्न-भिन्न नियमों का पालन करना पड़ता है-इस कारण समस्त कर्मों को दुःख रूप समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर के परिश्रम से बचने के लिये तथा आराम करने की इच्छा से जो यज्ञ, दान और तप आदि शास्त्रविहित कर्मों का त्याग करना है- यही उनको दुःखरूप समझकर शारीरिक क्लेश के भय से उनका त्याग करना है।
  5. जब तक मनुष्य मन, इन्द्रिय और शरीर में ममता और आसक्ति रहती है, तब तक वह किसी प्रकार भी कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। अतः यह राजस त्याग नाममात्र का ही त्याग है, सच्चा त्याग नहीं है। इसलिये कल्याण चाहने वाले साधनों को ऐसा त्याग नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि मन, इन्द्रिय और शरीर के आराम में आसक्ति होना रजोगुण-का कार्य है। अतएव ऐसा त्याग करने वाला मनुष्य वास्तविक त्याग के फल को, जो कि समस्त कर्मबन्धनों से छूटकर परमात्मा को पा लेना है, नहीं पाता।
  6. वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो जो कर्मशास्त्र में अवश्य कर्तव्य बतलाये गये हैं, वे समस्त कर्म ही नियम कर्म है, निषिद्ध और काग्य कर्म नियत कर्म नहीं हैं। नियत कर्मों को न करना भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करना है- इस भाव से भावित होकर उन कर्मों में और उनके फलरूप इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके उत्साहपूर्वक विधिवत् उनको करते रहना ही सात्त्विक त्याग है; क्‍योंकि कर्मों के फलरूप इस लोक और परलोक के भोगों में आसक्तिऔर कामना का त्याग ही वास्तविक त्याग है। त्याग का परिणाम कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होना चाहिये और यह परिणाम ममता, आसक्ति और कामना के त्याग से ही हो सकता है-केवल स्वरूप से कर्मों का त्याग करने से नहीं।
  7. शास्त्रनिषिद्ध कर्म और काम्यकर्म सभी अकुशल कर्म है; क्‍योंकि पापकर्म तो मनुष्य को नाना प्रकार की नीच योनियों में और नरक में गिराने वाले हैं एवं काम्यकर्म भी फलभोग के लिये पुनर्जन्म देने वाले है। सात्त्विक त्यागी में राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण यह तो निषिद्ध और काम्यकर्मों का त्याग करता है, वह द्वेष-बुद्धि से नहीं करता; किंतु शास्त्रदृष्टि से लोकसंग्रह के लिये उनका त्याग करता है।
  8. शास्त्रविहित नित्य-नैमित्तिक यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्म निष्कामभाव से किये जाने पर मनुष्य के पूर्वकृत संचित पापों का नाश करके उसे कर्मबन्धन से छुड़ा देने में समर्थ है, इसलिये ये कुशल कहलाते है। सात्त्विक त्यागी जो उपर्युक्त शुभ कर्मों का विधिवत् अनुष्ठान करता है, वह आसक्तिपूर्वक नहीं करता; किंतु शास्त्रविहित कर्मों का करना मनुष्य का कर्तव्य है- इस भावस ममता, आसक्ति और फलेच्छा छोडकर लोकसंग्रह के लिये ही उनका अनुष्ठान करता है।
  9. इस प्रकार राग-द्वेष से रहित होकर केवल कर्तव्यबुद्धि से कर्मों का ग्रहण और त्याग करने वाला शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित है, यानी उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि यह कर्मयोग रूप सात्त्विक त्याग ही कर्मबन्धन से छूटकर परमपद को प्राप्त कर लेने का पूर्ण साधन है। इसीलिये वह बुद्धिमान् है और वही सच्चा त्यागी है।
  10. कोई भी देहधारी मनुष्य बिना कर्म किये रह नहीं सकता (गीता 3/5); क्‍योंकि बिना कर्म किये शरीर का निर्वाह ही नहीं हो सकता। (गीता 3/8) इसलिये मनुष्य किसी भी आश्रम में क्‍यों न रहता हो- जब तक वह जीवित रहेगा, तब तक उसे अपनी परिस्थिति के अनुसार खाना-पीना, सोना-बैठना, चलना-फिरना और बोलना आदि कुछ न कुछ कर्म तो करना ही पड़ेगा। अतएव सम्पूर्णता से सब कर्मों का स्वरूप से त्याग किया जाना सम्भव नहीं है।
  11. जो निषिद्ध और काम्य-कर्मों का सर्वथा त्याग करके यथावश्यक शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों का अनुष्ठान करते हुए उन कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना सर्वथा त्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी है।
    ऊपर से इन्द्रियों की क्रियाओं का संयम करके मन से विषयों का चिन्तन करने वाला मनुष्य त्यागी नहीं नहीं है तथा अहंता, ममता और आसक्ति के रहते हुए शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि कर्तव्यकर्मों का स्वरूप त्याग कर देने वाला भी त्यागी नहीं है।
  12. जिन्‍होंने अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का त्याग नहीं किया है; जो आसक्ति और फलेच्छापूर्वक सब प्रकार के कर्म करने वाले है, उनके द्वारा किये हुए शुभ कर्मों का जो स्वर्गादि की प्राप्ति या अन्य किसी प्रकार के सांसारिक इष्ट भोगों की प्राप्ति रूप फल है, वह अच्छा फल है; तथा उनके द्वारा किये हुए पाप-कर्मों का जो पशु, पक्षी, कीट, पतंग और वृक्ष आदि तियक् योनियां प्राप्ति या नरकों की प्राप्ति अथवा अन्य किसी प्रकार के दुःखों की प्राप्ति रूप फल है- वह बुरा फल है। इसी प्रकार जो मनुष्यादि योनियों में उत्पन्न होकर कभी इष्ट भोगों को प्राप्त होना और कभी अनिष्ट भोगों को प्राप्त होना है, वह मिश्रित फल है।
    उन पुरुषों के कर्म अपना फल भुगतायें बिना नष्ट नहीं हो सकते, जन्म-जन्मान्तरों में शुभाशुभ फल देते रहते है; इसीलिये ऐसे मनुष्य संसारचक्र में घुमते रहते हैं।
  13. कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का जिन्‍होंने सर्वथा त्याग कर दिया है; इस अध्याय के दसवें श्लोक में त्यागी के नाम से जिनके लक्षण बतलाये गये है; गीता के छठे अध्याय के पहले श्लोक में जिनके लिये ‘संन्‍यासी’ और ‘योगी’ दोनों पदों का प्रयोग किया गया है- ऐसे कर्मयोगियों को यहाँ ‘संन्‍यासी’ कहा जाता है।
    इस प्रकार कर्म फल का त्याग कर देने वाले त्यागी मनुष्य जितने कर्म करते है, वे भूने हुए बीज की भाँति होते हैं, उनमें फल उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती तथा इस प्रकार यर्थाथ किये जाने वाले निष्काम कर्मों से पूर्वसंचित समस्त शुभाशुभ कर्मों का भी नाश हो जाता है। (गीता 4/23) इस कारण उनके इस जन्म में या जन्मान्तरों में किये हुए किसी भी कर्म का किसी भी प्रकार का फल किसी भी अवस्था में, जीते हुए या मरने के बाद कभी नहीं होता; वे कर्मबन्धन सर्वथा मुक्त हो जाते है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः