महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 41 श्लोक 4-12

एकचत्वारिंश (41) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

Prev.png

महाभारत: भीष्म पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 4-12 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 17


सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं,[1] राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को[2] तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को[3] पूजते हैं। जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त[4] एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं। जो शरीर रूप से स्थित भूतसमुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं,[5] उन अज्ञानियों को तू आसुर-स्वभाव वाले जान।

सम्बन्ध- विविध स्वभाविक श्रद्धा वालों के तथा घोर तप करने वाले लोगों के लक्षण बतलाकर अब भगवान सात्त्विक का ग्रहण और राजस-तामस का त्याग कराने के उद्देश्य से सात्त्विक राजस तामस आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद सुनने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हैं और कहते हैं- हे अर्जुन! भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं।[6] उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझसे सुन।

वायु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय-ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं। कड़वें, खट्टे, लक्षणयुक्त बहुत गरम, तीखे, रूखें, दाहकारक और दुःख चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ[7] राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, वासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है। जो शास्त्रविधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करने के, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है। परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिये अथवा फल-को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।[8]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अभिप्राय यह है कि देवताओं को पूजने वाले मनुष्य सात्त्विक हैं- सात्त्विकी निष्ठावान हैं। देवताओं से यहाँ सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, यम, अश्विनीकुमार और विश्वदेव आदि शास्त्रोक्त देव समझने चाहिये।
    यहाँ देव पूजनरूप क्रिया सात्त्विक होने के कारण उसे करने वाले को सात्त्विक बतलाया गया है, परन्तु पूर्ण सात्त्विक तो वही है, जो सात्त्विक क्रियाओं को निष्काम भाव से करता है।
  2. यक्ष से कुबेरादि और राक्षसों से राहु-केतु आदि समझना चाहिये।
  3. मरने के बाद जो पाप-कर्मवश भूत-प्रेतादि के वायु प्रधान देह को प्राप्त होते हैं, वे भूत-प्रेत कहलाते हैं।
  4. जिसमें नाना प्रकार के आडम्बरों से शरीर और इन्द्रियों को कष्ट पहुँचाया जाता है और जिसका स्वरूप बड़ा भयानक होता है, इस प्रकार के शास्त्र विरुद्ध भयानक तप करने वाले मनुष्यों में श्रद्धा नहीं होती। वे लोगों को ठगने के लिये और उन पर रोब जमाने के लिये पाखण्ड रचते हैं तभा सदा अहंकार से फूले रहते हैं इसी से उन्‍हें दम्भ और अहंकार से युक्त कहा गया है।
  5. शरीर क्षीण और दुर्बल करना तथा स्वयं अपने आत्मा को या किसी के भी आत्मा को दुःख पहुँचाना भूतसमूदाय- को और परमात्मा को कृश करना है क्‍योंकि सबके हृदय में आत्मा रूप से परमात्मा ही स्थित है।
  6. मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरण के अनुरूप ही श्रद्धा भी होती है। आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणामस्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा। ‘आहारशुदौ सत्त्वशुद्धिः’। (छान्दोग्य 7/26/2) अन्तःकरण की शुद्धि से ही विचार, भाव, श्रद्धादि गुण और क्रियाएं शुद्ध होगी अत इस प्रसंग में आहार का विवेचन करके यह भाव दिखलाया गया है कि सात्त्विक, राजस और तामस आहार में जो आहार जिसको प्रिय होता है, वह उसी गुणवाला होता है। इसी भाव से श्लोक में ‘प्रिय’ शब्द देकर विशेष लक्ष्य कराया गया है। अतः आहार की दृष्टि से भी उसकी पहचान हो सकती है। यही बात यज्ञ, दान और तप के विषय में भी समझ लेनी चाहिये।
  7. नीम, करेला आदि पदार्थ कड़वे हैं, इमली आदि खट्टे है, क्षार तथा विविध भाँति के नमक नमकीन है, बहुत गरम-नरम वस्तुएं अति उष्ण है। लाल मिर्च आदि तीखे हैं, भाड में भूंजे हुए अन्नादि रूखे हैं और राई आदि पदार्थ दाहकारक है। उपयुक्त पदार्थों को खाने के समय गले आदि में तकलीफ का होना, जीभ, तालू आदि का जलना, दांतों का आम जाना, चबाने में दिक्कत होना, आंखों और नाक में पानी आ जाना, हिचकी आना आदि जो कष्ट होते हैं। उसे दुख कहते हैं। खाने के बाद जो पश्चयाताप होता है, उसे ‘चिंता’ कहते हैं और खाने से जो बिमारियां उत्पन्न होती हैं उसे ‘रोग’ कहते हैं। इस कड़वे, खट्टे पदार्थों के खाने से दुःख, चिंता और रोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये इन्‍हें दुख, चिंता, और रोग को उत्पन्न करने वाला कहा जाता है अतएव इनका त्याग करना उचित है।
  8. जो यज्ञ किसी फल प्राप्ति के उदे्दश्य से किया गया है, वह शास्त्रविहित और श्रद्धापूर्वक किया हुआ होने पर भी राजस है एवं जो दम्भपूर्वक किया जाता है, वह भी राजस है; फिर जिसमें ये दोनों दोष हों, उसे ‘राजस’ होने में तो कहना ही क्या है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः