महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 4-9

अष्टात्रिंश (38) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

Prev.png

महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 4-9 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 14


हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं,[1] प्रकृति तो उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ।[2] सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में जीवों के नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेने की बात कही गयी, किंतु वहाँ गुणों की कोई बात नहीं आयी। इसलिये अब वे गुण क्या है। उनका संग क्या है किस गुण के संग से अच्छी योनि में और किस गुण के संग से बुरी योनि में जन्म होता है- इन सब बातों को स्पष्ट करने के लिये इस प्रकरण का आरम्भ करते हुए भगवान अब अर्जुन से पहले उन तीनों गुणों की प्रकृति से उत्पत्ति और उनके विभिन्न नाम बतलाकर फिर उनके स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बन्धन-प्रकार का क्रमशः पृथक पृथक वर्णन करते हैं।

कृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण[3] अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं।[4] हे निष्पाप! उन तीनों गुणों मे सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है,[5] वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उनके अभिमान से बांधता है।[6] हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान।[7] वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बांधता है।[8]

हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले[9] तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान।[10] वह इस जीवात्मों को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।[11] सम्बन्ध- इस प्रकार सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों का स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बांधे जाने का प्रकार बतलाकर अब उन तीनों गुणों का स्वाभावित व्यापार बतलाते हैं। हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगता है[12] और रजोगुण कर्म में[13] तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में भी लगाता है।[14] सम्बन्ध- सत्त्व आदि तीनों गुण जिस समय अपने-अपने कार्य में जीवों को नियुक्त करते हैं, उस समय वे ऐसा करने में किस प्रकार समर्थ होते हैं- यह बात अगले श्लोक में बतलाते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ ‘मूर्ति’ शब्द देव, मनुष्य, राक्षस, पशु, और पक्षी आदि नाना प्रकार के भिन्न-भिन्न वर्ण और आकृति वाले शरीरों से युक्त समस्त प्राणियों का वाचक है। उन प्राणियों का स्थूल रूप से जन्म ग्रहण करना ही उनका उत्पन्न होना है।
  2. इससे भगवान यह दिखलाता है कि उन सब मूर्तियों के जो सूक्ष्म-स्थूल शरीर है, वे सब प्रकृति के अंश से बने हुए है और उन सबमें जो चेतन आत्मा है, वह मेरा अंश है। उन दोनों के सम्बन्ध में समस्त मूर्तियाॅ अर्थात शरीर धारी प्राणी प्रकट होते हैं, अतएव प्रकृति उनकी माता है और मैं पिता हूँ।
  3. अभिप्राय यह है कि गुण तीन है सत्त्व, रज और तम उनके नाम हैं और तीनों परस्पर भिन्न हैं। ये तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं एवं समस्त जड पदार्थ इन्ही तीनों का विस्तार है।
  4. जिसका शरीर में अभिमान है, उसी पर इन गुणों का प्रभाव पड़ता है और वास्तव में स्वरूप से वह सब प्रकार के विकारों से रहित और अविनाशी, अतएवं उनका बन्धन हो ही नहीं सकता। अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण उसने बन्धन मान रखा है। इन तीनों गुणों जो अपने अनुरूप भागों में और शरीर में इसका ममत्व, आसक्ति और अभिमान उत्पन्न कर देना है- यही उन तीनों गुणों का उसको शरीर में बांध देना है।
  5. सत्त्वगुण स्वरूप सर्वथा निर्मल है, उसमें किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है इसी कारण वह प्रकाशक और अनामय है। उससे अन्तःकरण और इन्द्रियों में प्रकाश की वद्धि होती है एवं दुःख, विक्षेप, दुर्गुण, और दुराचारों का नाश होकर शांति की प्राप्ति होती है।
  6. सुख शब्द यहाँ गीता के अठारहवें अध्याय के छत्तीसवें और सैंत्तीसवें श्लोकों में जिसके लक्षण बतलाये गये हैं, उस सात्त्विक सुख का वाचक है। उस सुख की प्राप्ति के समय जो मैं सुखी हूँ इस प्रकार अभिमान हो जाता है तथा ज्ञान बोधशक्ति का नाम है उसके प्रकट होने पर जो उसमें 'मैं ज्ञानी हूँ', ऐसा अभिमान हो जाता है वह उसे गुणातीत अवस्था से वञ्चित रख देता है, अत: यही सत्त्वगुण जीवात्मा को सुख और ज्ञान संग से बांधता है।
  7. कामना और आसक्ति से रजोगुण बढ़ता है तथा रजोगुण से कामना और आसक्ति बढ़ती है। इसका परस्पर बीज और वृक्ष की भाँति अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है इसमें रजोगुण बीजस्थानीय और कामना, आसक्ति आदि वृक्ष स्थानीय हैं। बीज वृक्ष से ही उत्पन्न होता है, तथापि वृक्ष का कारण भी बीज ही है इसी बात को स्पष्ट करने के लिये कहीं रजोगुण से कामादि की उत्पत्ति और कहीं कामनादि से रजोगुण की उत्पत्ति बतलायी गयी है।
  8. ‘इन सब कर्मों को मैं करता हूं’ कर्मों में कर्तापन के इस अभिमानपूर्वक ‘मुझे इसका अमुक फल मिलेगा’ ऐसा मानकर कर्मों के और उनके फलों के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेने का नाम ‘कर्मसंग’ है; इसके द्वारा रजोगुण जो इस जीवात्मा को जन्म-मृत्यु संसार में फँसाये रखना है, वही उसका कर्म संग के द्वारा जीवात्मा बांधना है।
  9. अन्तःकरण और इन्द्रियों में ज्ञानशक्ति का अभाव करके उनमें मोह उत्पन्न कर देना ही तमोगुण का सब देहाभिमानियों को मोहित करना है।
  10. इस अध्याय के सतरहवें श्लोक में तो अज्ञान की उत्पत्ति तमोगुण से बतलायी है। और यहाँ तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न बतलाया गया- इसका अभिप्राय यह है कि तमोगुण से अज्ञान बढ़ता है और अज्ञान से तमोगुण बढ़ता हैं। इन दोनों में भी बीज और वृक्ष की भाँति अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है, अज्ञान बीज स्थानीय है और तमोगुण वृक्ष स्थानीय है।
  11. अन्तःकरण और इन्द्रियों व्यर्थ चेष्टा का एवं शास्त्रविहित कर्तव्य पालन में अवहेलना का नाम ‘प्रमाद’ है। कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृतिरूप निरूद्यमता का नाम ‘आलस्य’ है। तन्द्रा स्वप्न और सुषुप्ति- इन सब का नाम ‘निद्रा’ है। इन सब के द्वारा जो तमोगुण का इस जीवात्मा को मुक्त के साधन से संचित रखकर जन्म-मृत्यु रूप संसार में फँसाये रखना है- यही उसका प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा जीवात्मा बांधना है।
  12. ‘सुख’ शब्द जहाँ सात्त्विक सुख का वाचक है (गीता 28/36,37) और सत्त्वगुण जो इन मनुष्य को सांसारिक भोगों और चेष्टाओं से तथा प्रमाद, आलस्य और निद्रा से हटाकर आत्मचिन्तन आदि के द्वारा सात्त्विक सुख से संयुक्त कर देना है- यही उसको सुख में लगाना है।
  13. ‘कर्म’ शब्द यहाँ (इस लोक और परलोक के भोग रूप फल देने वाले) शास्त्रविहित सकामकर्मों का वाचक है। नाना प्रकार के भोगों की अच्छा उत्पन्न करके उनकी प्राप्ति के लिये उन कर्मों में मनुष्य को प्रवृत कर देना ही रजोगुण का मनुष्य को उन कर्मों में लगाना है।
  14. जब तमोगुण बढ़ता है, तब वह कभी तो मनुष्य की कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने वाली विवेकशाक्ति को नष्ट कर देता हैं और कभी अन्तःकरण और इन्द्रियों की चेतना को नष्ट करके निद्रा की वृत्ति उत्पन्न कर देता हैं यही उसका मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित करना है और कर्तव्यपालन में अवहेलना कराके व्यर्थ चेष्टाओं में नियुक्त कर देना प्रमाद में लगाना है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः