महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 17-21

अष्टात्रिंश (38) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 17-21 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 14

सत्त्वगुण ज्ञान[1] उत्पन्न होता है और रजोगुण से निसंदेह लोभ[2] तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं, और अज्ञान भी होता है। सत्त्वगुण स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्यलोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों का तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।[3]

सम्बन्ध- गीता के तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में जो यह बात कही थी कि गुणों का संग ही इस मनुष्य के अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्तिरूप पुनर्जन्म का कारण है उसी के अनुसार यह अध्याय में पांचवें से अठारहवें श्लोक तक गुणों के स्वरूप तथा गुणों के कार्य द्वारा मनुष्य बधे हुए मनुष्य की गति आदि का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया। इस वर्णन से यह बात समझायी गयी। कि मनुष्य को पहले तम और रजोगुण त्याग करके सत्त्वगुण में अपनी स्थिति करनी चाहिये और उसके बाद सत्त्वगुण का भी त्याग करके गुणातीत हो जाना चाहिये। अतएव गुणातीत होने के उपाय और गुणातीत अवस्था का फल अगले दो श्लोकों द्वारा बतलाया जाता है- जिस समय दृष्टा[4] तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता[5] और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।[6] यह पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके[7] जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है।[8]

सम्बन्ध- इस प्रकार जीवन-अवस्था में ही तीनों गुणों से अतीत होकर मनुष्य अमृत को प्राप्त हो जाता है- इस रहस्य युक्त बात को सुनकर गुणातीत पुरुष के लक्षण, आचरण और गुणातीत बनने के उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं- हे वासुदेव! इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है। तथा हे प्रभो! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है। सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान उसके प्रश्नों में से ‘लक्षण’ और ‘आचरण’ विषयक दो प्रश्नों का उत्तर चार श्लोकों द्वारा देते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ ‘ज्ञान’ शब्द से यह समझना चाहिये कि ज्ञान, प्रकाश, और सुख, शांति आदि सभी सात्त्विक भावों की उत्पत्ति सत्त्वगुण से होती हैं।
  2. यहाँ लोभ शब्द से भी यही समझना चाहिये कि लोभ, प्रवृति, आसक्ति, कामना, स्वार्थपूर्वक कर्मों का आरम्भ आदि सभी राजस भावों की उत्पत्ति रजोगुण से होती है।
  3. चौदहवें और पंद्रहवें श्लोकों में तो दूसरे गुणों में स्वाभाविक स्थिति होते हुए भी मरणकाल में जिस गुण की वृद्धि में मृत्यु होती हैं, उसी के अनुसार गति होने की बात कही गयी हैं और यहाँ जिनकी स्वाभाविक स्थायी स्थिति सत्त्वादि गुणों में है, उनकी गति के भेद का वर्णन किया गया है। इसलिये ही यहाँ सदा तमोगुण के कार्यों में स्थित रहने वाले तामस मनुष्य को नरकादि की प्राप्ति होने की बात भी कही गयी है।
  4. मनुष्य स्वाभाविक तो अपने को शरीरधारी समझकर कर्ता और भोक्ता बना रहता है, परंतु जिस समय शास्त्र और आचार्य के उपदेश द्वारा विवेक प्राप्त करके वह अपने को दृष्टा समझने लग जाता है, उस समय का वर्णन यहाँ किया जाता है।
  5. इन्द्रिय, अन्तःकरण और प्राण आदि की श्रवण, दर्शन, खान-पान, चिन्तन-मन, शयन-आसन और व्यवहार आदि सभी स्वाभाविक चेष्टाओं के होते समय सदा-सर्वदा अपने को निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित देखते हुए जो ऐसे समझता है कि गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता नहीं है गुणों के कार्य इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राण आदि ही गुणों के कार्यरूप इन्द्रियादि के विषयों में बरत रहे हैं (गीता 5/7/9) अतः गुण ही गुणों में बरत रहे हैं (गीता 3/28) मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है- यही गुणों से अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता न देखना है।
  6. अपने को निर्गुण निराकार ब्रह्मा से अभिन्न समझ लेने पर जो उस एकमात्र सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म से भिन्न किसी भी सत्ता का न रहना और सर्वत्र एवं सदा सर्वदा केवल परमात्मा का प्रत्यक्ष हो जाना ही उसे तत्त्व से जानना है। ऐसी स्थिति के बाद जो सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म की अभिन्नभाव से साक्षात प्राप्ति हो जाती है। वही भगवद्भाव यानी भगवान के स्वरूप को प्राप्त होना है।
  7. रज और तम का सम्बन्ध छूटने के बाद यदि सत्त्वगुण से सम्बन्ध बना रहे तो वे भी मुक्ति में बाधक होकर पुन-जन्म का कारण बन सकता है; अतएव उसका सम्बन्ध भी त्याग देना चाहिये। आत्मा वास्तव में असंग है। गुणों के साथ, उसका कुछ भी सम्‍बन्‍ध नहीं है तथापि जो अनादिसिद्ध अज्ञान से इनके साथ सम्बन्ध हुआ है, उस सम्बन्ध को ज्ञान के द्वारा तोड़ देना और अपने को निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म से अभिन्न और गुणों से सर्वथा सम्बन्धरहित समझ लेना अर्थात प्रत्यक्ष अनुभव कर लेना ही गुणों से अतीत हो जाना यानी तीना गुणों का उल्लंघन करना है।
  8. जन्म और मरण तथा बाल, युवा और वृद्धावस्था शरीर की होती है एवं आधि और व्याधि आदि सब प्रकार के दुःख भी इन्द्रिय, मन और प्राण आदि के संघातरूप शरीर में ही व्याप्त रहते हैं। अतः तत्त्वज्ञान के द्वारा शरीर से सर्वथा सम्बन्ध रहित हो जाना ही जन्म, मृत्यु, जरा और दुःखों से सर्वथा मुक्त हो जाना है तथा जो अमृतस्वरूप सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म को अभिन्नभाव से प्रत्यक्ष कर लेना है, जिसे उन्नीसवें श्लोक में भगवद्भाव की प्राप्ति नाम से कहा गया है- वही यहाँ ‘अमृत’ का अनुभव करना है।

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