महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 36 श्लोक 3-11

षट्त्रिंश (36) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 3-11 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 12


परंतु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्‍यापी, अकथनीय स्‍वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्‍य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से (अभिन्‍नभाव से) ध्‍यान करते हुए भजते हैं, वे सम्‍पूर्ण भूतों के हित में रत[1] और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्‍त होते हैं।[2] संबंध- इस प्रकार निर्गुण-उपासना और उसके फल का प्रतिपादन करने के पश्चात अब देहाभिमानियों के लिये अव्‍यक्‍त गति-की प्राप्ति को कठिन बतलाते हैं- उन सच्चिदानंदघन निराकर ब्रह्म में आसक्‍त चित्त वाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है,[3] क्‍योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्‍यक्तविषयक गति दु:खपूर्वक प्रा‍प्‍त की जाती है।[4] परंतु जो मेरे परायण रहने वाले[5] भक्तजन सम्‍पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके[6] मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्‍यभक्ति योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं।[7] हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्‍यु रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।[8] संबंध- इस प्रकार पूर्वश्लोकों में निर्गुण-उपासना की अपेक्षा सगुण-उपासना की सगुमता का प्रतिपादन किया गया। इसलिये अब भगवान अर्जुन को उसी प्रकार मन-बुद्धि लगाकर सगुण-उपासना करने की आज्ञा देते हैं।

मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके अनंतर तू मुझमें ही निवास करेगा,[9] इसमें कुछ भी संशय नहीं है। यदि तू मन को मुझमें अचल स्‍थापन करने के लिये समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्‍यासरूप योग के द्वारा मुझको प्रा‍प्‍त होने के लिये इच्‍छा कर।[10] यदि तू उपर्युक्‍त अभ्‍यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करने के ही परायण हो जा।[11] इस प्रकार मेरे निमित्‍त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि का ही प्राप्‍त होगा।[12] यदि मेरी प्राप्तिरूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्‍त साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्रा‍प्‍त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्‍याग कर।[13] संबंध- छठे श्लोक से आठवें तक अनन्‍य ध्‍यान का फल सहित वर्णन करके नवें से ग्‍यारहवें श्लोक तक एक प्रकार के साधन में असमर्थ होने पर दूसरा साधन बतलाते हुए अंत में ‘सर्वकर्मफलत्‍याग’ रूप का साधन का वर्णन किया गया। इससे यह शंका हो सकती है कि ‘कर्मफलत्‍याग’ रूप साधन पूर्वोक्‍त अन्‍य साधनों की अपेक्षा निम्‍न श्रेणी का होगा; अत: ऐसी शंका को हटाने के लिये कर्मफल के त्‍याग का महत्त्व अगले श्लोक में बतलाया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिस प्रकार अविवेकी मनुष्‍य अपने हित में रत रहता है, उसी प्रकार उन निर्गुण-उपासकों का सम्‍पूर्ण प्राणियों में आत्‍मभाव हो जाने के कारण वे समान भाव से सबके हित रत रहते हैं।
  2. इस कथन से भगवान ने ब्रह्म को अपने से अभिन्‍न बतलाते हुए कहा है कि उपर्युक्‍त उपासना का फल जो निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति है, वह मेरी ही प्राप्ति है; क्‍योंकि ब्रह्म मुझसे भिन्‍न नहीं है और मैं ब्रह्म से भिन्‍न नहीं हूँ। वह ब्रह्म मैं ही हूं, यही भाव भगवान ने गीता के चौदहवें अध्‍याय के सत्ताईसवें श्लोक में ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्‍ठाहम्’ अर्थात मैं ब्रह्म को प्रतिष्‍ठा हूं- इस कथन से दिखलाया है।
  3. पूर्व श्लोकों में जिन निर्गुण-उपासकों का वर्णन है, उन निर्गुण-निराकार सच्चिदानंदघन ब्रह्म में आसक्‍त-चित्त वाले पुरुषों को परिश्रम विशेष है, यह कहकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि निर्गुण ब्रह्म का तत्त्व बड़ा ही गहन है; जिसकी बुद्धि शुद्ध, स्थिर और सूक्ष्‍म होती है, जिसका शरीर में अभिमान नहीं होता, वही उसे समझ सकता है; साधारण मनुष्‍यों की समझ में यह नहीं आता। इसलिये निर्गुण उपासना के साधन के आरम्‍भकाल में परिश्रम अधिक होता है।
  4. उपर्युक्‍त कथन से भगवान ने पूर्वार्द्ध में बतलाये हुए परिश्रम का हेतु दिखलाया है। अभिप्राय यह है कि देह में अभिमान रहते निर्गुण ब्रह्म का तत्त्‍व समझ में आना बहुत कठिन है। इसलिये जिनका शरीर में अभिमान है, उनको वैसी स्थिति बड़े परिश्रम से प्राप्‍त होती है।
    किंतु जो गीता के छठे अध्‍याय के चौबीसवें से सत्ताईसवें श्लोक तक निर्गुण-उपासना का प्रकार बतलाकर अट्ठाईसवें श्लोक में उस प्रकार का साधन करते-करते सुखपूर्वक परमात्‍मप्राप्तिरूप अत्‍यंतानंद का लाभ होना बतलाया है, वह कथन जिसके समस्‍त पाप तथा रजोगुण और तमोगुण शांत हो गये हैं, जो ‘ब्रह्मभूत’ हो गया है अर्थात जो ब्रह्म में अभिन्‍न भाव-से स्थित हो गया है-ऐसे पुरुष के लिये है, देहाभिमानियों के लिये नही।
  5. भाँति-भाँति के दु:खों की प्राप्ति होने पर भी प्रह्लाद की भाँति भगवान पर निर्भर और निर्विकार रहना, उन दु:खों को भगवान को भेजा हुआ पुरस्‍कार समझ कर सुखरूप ही समझना तथा भगवान को ही परम प्रेमी, परम गति, परम सुहृद और सब प्रकार से शरण लेने योग्‍य समझकर अपने आपको भगवान के समर्पण कर देना- यही भगवान के परायण होना है।
  6. कर्मों के करने में पराधीन समझकर भगवान की आज्ञा और संकेत के अनुसार समस्‍त शास्त्रानुकूल कर्म करते रहना; उन कर्मों में न तो ममता और आसक्ति रखना और न उनके फल से किसी प्रकार का संबंध रखना; प्रत्‍येक क्रिया में ऐसा ही भाव रखना कि मैं तो केवल निमित्तमात्र हूं, मेरी कुछ भी करने की शक्ति नहीं है, भगवान ही अपने इच्‍छानुसार मुझसे कठपुतली की भाँति समस्‍त कर्म करवा रहे हैं- यही समस्‍त कर्मों का भगवान के समर्पण करना है।
  7. एक परमेश्वर के सिवा मेरा कोई नहीं है, वे ही मेरे सर्वस्‍व हैं- ऐसा समझकर जो भगवान में स्‍वार्थरहित तथा अत्‍यंत श्रद्धा से युक्‍त अनन्‍य प्रेम करना है- जिस प्रेम में स्‍वार्थ, अभिमान और व्‍यभिचार का जरा भी दोष नहीं है; जो सर्वथा पूर्ण और अटल है; जिसका किंचित अंश भी भगवान से भिन्‍न वस्‍तु में नहीं है और जिसके कारण क्षणमात्र की भी भगवान की विस्‍मृति असह्य हो जाती है- उस अनन्‍य प्रेम को ‘अनन्‍य भक्त्‍िा योग’ कहते हैं और ऐसे भक्तियोग द्वारा निरंतर भगवान का चिंतन करते हुए जो उनके गुण, प्रभाव और लीलाओं का श्रवण, कीर्तन, उनके नामों का उच्‍चारण और जप आदि करना है- यह अनन्‍य भक्तियोग के द्वारा भगवान का निरंतर चिंतन करते हुए उनको भजना है।
  8. इस संसार में अभी कुछ मृत्‍युमय है; इसमें पैदा होने वाली एक भी चीज ऐसी नहीं है, जो कभी क्षणभर के लिये भी मृत्‍यु के आक्रमण से बचती हो। जैसे समुद्र में असंख्‍य लहरें उठती रहती हैं, वैसे ही इस अपार संसार-सागर में अनवरत जन्‍म-मृत्‍युरूपी तरंगें उठा करती हैं। समु्द्र की लहरों की गणना चाहे हो जाय; पर जब तक परमेश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक भविष्‍य में जीव को कितनी बार जन्‍मना और मरना पड़ेगा- इसकी गणना नहीं हो सकती। इसीलिये इसको ‘मृत्‍युरूप संसार-सागर’ कहते हैं।
    जो भक्त मन बुद्धि को भगवान में लगाकर निरंतर भगवान की उपासना करते हैं, उनको भगवान तत्‍काल ही जन्‍म-मृत्‍यु से सदा के लिये छुड़ाकर अपनी प्राप्ति यहीं करा देते हैं अथवा मरने के बाद अपने परम धाम में ले जाते हैं- अर्थात जैसे केवट किसी को नौका में बैठाकर नदी से पार कर देता है, वैसे ही भक्तिरूपी नौका पर स्थित भक्त के लिये भगवान स्‍वयं केवट बनकर, उसकी समस्‍त कठिनाइयों और विपत्तियों को दूर करके बहुत शीघ्र उसे भीषण संसार-समुद्र के उस पार अपने परमधाम में ले जाते हैं। यही भगवान का अपने उपर्युक्‍त भक्त को मृत्‍यु रूप संसार से पार कर देना है।
  9. जो सम्‍पूर्ण चराचर संसार को व्‍याप्‍त करके सबके हृदय में स्थित हैं और जो दयालुता, सुशीलता तथा सुहृदता आदि अनंत गुणों के समुद्र हैं, उन परम दिव्‍य, प्रेममय और आनंदमय, सर्वशक्तिमान, सर्वोत्तम, शरण लेने के योग्‍य परमेश्‍वर के गुण, प्रभाव और लीला के तत्त्‍व तथा रहस्‍य को भलीभाँति समझकर उनका सदा-सर्वदा और सर्वत्र अटल निश्चय रखना- यही बुद्धि को भगवान में लगाना है तथा इस प्रकार अपने परम प्रेमास्‍पद पुरुषोत्तम भगवान के अतिरिक्‍त अन्‍य समस्‍त विषयों से आसक्ति को सर्वथा हटाकर मन को केवल उन्‍हीं में तन्‍मय कर देना और नित्‍य-निरंतर उपर्युक्‍त प्रकार से उनका चिंतन करते रहना- यही मन को भगवान में लगाना है। इस प्रकार जो अपने मन-बुद्धि को भगवान में लगा देता है, वह शीघ्र ही भगवान को प्राप्‍त हो जाता है।
    इसलिये भगवान के गुण, प्रभाव और लीला के तत्त्‍व और रहस्‍य को जाने वाले महापुरुषों का संग, उनके गुण और आचरणों का अनुकरण तथा भोग, आलस्‍य और प्रमाद को छोड़कर उनके बतलाये हुए मार्ग का विश्‍वासपूर्वक तत्‍परता के साथ अनुसरण करना चाहिये।
  10. भगवान की प्राप्ति के लिये भगवान में नाना प्रकार की युक्तियों से चित्त को स्‍थापन करने का जो बार-बार प्रयत्‍न किया जाता है, उसे ‘अभ्‍यासयोग’ कहते हैं। अत: भगवान के जिस नाम, रूप, गुण और लीला आदि में साधक की श्रद्धा और प्रेम हो, उसी में केवल भगवत्‍प्राप्ति के उद्देश्‍य ही बार-बार मन लगाने के लिये प्रयत्‍न करना अभ्‍यासयोग के द्वारा भगवान को प्राप्‍त करने की इच्‍छा करना है। भगवान में मन लगाने के साधन शास्त्रों में अनेकों प्रकार के बतलाये गये हैं, उनमें से निम्‍नलिखित कतिपय साधन सर्वसाधारण के लिये विशेष उपयोगी प्रतीत होते हैं-

    (1) सूर्य के सामने आंखें मूंदने पर मन के द्वारा सर्वत्र समभाव से जो एक प्रकाश का पुंज प्रतीत होता है, उससे भी हजारों गुना अधिक प्रकाश का पुंज भगवत्‍स्‍वरूप में है- इस प्रकार मन से निश्चय करके परमात्‍मा के उस तेजोमय ज्‍योति-स्‍वरूप में चित्‍त लगाने के लिये बार-बार चेष्‍टा करना।
    (2) जैसे दियासलाई में अग्नि व्‍यापक है, वैसे ही भगवान सर्वत्र व्‍यापक हैं- यह समझकर जहां-जहाँ मन जाय वहां-वहाँ ही गुण और प्रभावसहित सर्वशक्तिमान परम प्रेमास्‍पद परमेश्‍वर के स्‍वरूप का प्रेमपूर्वक पुन: पुन: चिंतन करते रहना।
    (3) जहां-जहाँ मन जाय, वहां-वहाँ से उसे हटाकर भगवान विष्‍णु, शिव, राम और कृष्ण आदि जो भी अपने इष्‍टदेव हों, उनकी मानसिक या धातु आदि से निर्मित मूर्ति में अथवा चित्रपट में या उनके नाम-जप में श्रद्धा और प्रेम के साथ पुन: पुन: मन लगाने का प्रयत्‍न करना।
    (4) भ्रमर के गुंजार की तरह एकतार ओंकार की ध्‍वनि करते हुए उस ध्‍वनि में परमेश्वर के स्‍वरूप का पुन: पुन: चिंतन करना।
    (5) स्‍वाभाविक श्‍वास-प्रश्‍वास के साथ-साथ भगवान के नाम का जप नित्‍य-निरंतर होता रहे- इसके लिये प्रयत्‍न करना।
    (6) परमात्मा के नाम, रूप, गुण, चरित्र और प्रभाव के रहस्‍य को जानने के लिये तद्विषयक शास्त्रों को पुन: पुन: अभ्‍यास करना।
    (7) गीता के चौथे अध्‍याय के उन्‍तीसवें श्लोक के अनुसार प्राणामया का अभ्‍यास करना।

    इनमें से कोई-सा भी अभ्‍यास यदि श्रद्धा और विश्वास तथा लगन के साथ किया जाय तो क्रमश: सम्‍पूर्ण पापों और विघ्नों का नाश होकर अंत में भगवत्‍प्राप्ति हो जाती है। इसलिये बड़े उत्‍साह और तत्‍परता के साथ अभ्‍यास करना चाहिये। साधकों की‍ स्थिति, अधिकार तथा साधन की गति के तारतम्‍य से फल की प्राप्ति में देर-सवेर हो सकती है। अतएव शीघ्र फल न मिले तो कठिन समझकर, ऊबकर या आलस्‍य के वश होकर न तो अपने अभ्‍यास को छोड़ना ही चाहिये और न उसमें किसी प्रकार कमी ही आने देनी चाहिये; बल्कि उसे बढ़ाते रहना चाहिये।

  11. इस श्लोक में कहे हुए ‘मत्‍कर्म’ शब्‍द से उन कर्मों को समझना चाहिये जो केवल भगवान के लिये ही होते हैं या भगवत-सेवा-पूजा विषयक होते हैं तथा जिन कर्मों में अपना जरा भी स्‍वार्थ, ममत्‍व और आसक्ति आदि का संबंध नहीं होता। गीता के ग्‍यारहवें अध्‍याय के अंतिम श्लोक में भी ‘मत्‍कर्मकृत्’ पद में ‘मत्‍कर्म’ शब्‍द आया है, वहाँ भी इसकी व्‍याख्‍या की गयी है।
    एकमात्र भगवान को ही अपना परम आश्रय और परम गति मानना और केवल उन्‍हीं की प्रसन्‍नता के लिये परम श्रद्धा और अनन्‍य प्रेम के साथ मन, वाणी और शरीर से उनकी सेवा-पूजा आदि तथा यज्ञ, दान और तप आदि शास्त्रविहित कर्मों को अपना कर्तव्‍य समझकर निरंतर करते रहना- यही उन कर्मों के परायण होना है।
  12. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार कर्मों का करना भी मेरी प्राप्ति का एक स्‍वतंत्र और सुगम साधन है। जैसे भजन-ध्‍यानरूपी साधन करने वालों को मेरी प्राप्ति होती है, वैसे ही मेरे लिये कर्म करने वालों को भी मैं प्राप्‍त हो सकता हूँ। अतएव मेरे लिये कर्म करना पूर्वोक्‍त साधनों की अपेक्षा किसी अंश में भी निम्‍न श्रेणी का साधन नहीं है।
  13. यज्ञ, दान, तप, सेवा और वर्णाश्रमानुसार जीविका तथा शरीर निर्वाह के लिए किये जाने वाले शास्त्रसम्‍मत सभी कर्मों को यथायोग्‍य करते हुए, इस लोक और परलोक के भोगों की प्राप्तिरूप जो उनका फल है, उसमे ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्‍याग कर देना ही ‘सब कर्मों का फलत्‍याग करना' है।
    इस अध्‍याय के छठे श्लोक के कथनानुसार समस्‍त कर्मों को भगवान में अर्पण करना, दसवें श्लोक के कथनानुसार भगवान-के लिये भगवान के कर्मों को करना तथा इस श्लोक के कथनानुसार समस्‍त कर्मों के फल का त्‍याग करना- ये तीनों ही ‘कर्म-योग’ हैं और तीनों का ही फल परमेश्वर की प्राप्ति है, अतएव फल में किसी प्रकार का भेद नहीं है। केवल साधकों की प्रकृति, भावना और उनके साधन की प्रणाली के भेद से इनका भेद किया गया है। समस्‍त कर्मों को भगवान में अर्पण करना और भगवान के लिये समस्‍त कर्म करना-इन दोनों में तो भक्ति की प्रधानता है; ‘सर्वकर्मफलत्‍याग’ मैं केवल फल-त्‍याग की प्रधानता है। यही इनका मुख्‍य भेद है।
    सम्‍पूर्ण कर्मों को भगवान के अर्पण कर देने वाला पुरुष समझता है कि मैं भगवान के हाथ की कठपुतली हूं, मुझमें कुछ भी करने की सामर्थ्‍य नहीं है, मेरे मन, बुद्धि और इन्द्रियादि जो कुछ हैं- सब भगवान के हैं और भगवान ही इनसे अपने इच्‍छानुसार समस्‍त कर्मों में और उनके फल में किंचिन्‍मात्र भी राग-द्वेष नहीं रहता; उसे प्रारब्‍धानुसार जो कुछ भी सुख-दु:खों के भोग प्राप्‍त होते हैं, उन सबको वह भगवान का प्रसाद समझकर सदा ही प्रसन्‍न रहता है। अतएव उसका सब में समभाव होकर उसे शीघ्र ही भगवान की प्राप्ति हो जाती है।
    भगवदर्थ कर्म करने वाला मनुष्‍य पूर्वोंक्‍त साधक की भाँति यह नहीं समझता कि ‘मैं कुछ नहीं करता हूँ और भगवान ही मुझसे सब कुछ करवा लेते हैं। वह यह समझता है कि भगवान मेरे परम पूज्‍य, परमप्रेमी और परम सुहृद् हैं; उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना ही मेरा परम कर्तव्‍य है। अतएव वह भगवान को समस्‍त जगत में व्‍याप्‍त समझकर उनकी सेवा के उद्देश्‍य से शास्त्र द्वारा प्राप्‍त उनकी आज्ञा के अनुसार यज्ञ, दान और तप, वर्णाश्रम के अनुकूल आजीविका और शरीरनिर्वाह के तथा भगवान की पूजा-सेवादि के कर्मों में लगा रहता है। उसकी प्रत्‍येक क्रिया भगवान के आज्ञानुसार और भगवान की ही सेवा के उद्देश्‍य से होती है (गीता 11:55), अत: उन समस्‍त क्रियाओं और उनके फलों में उसकी आसक्ति और कामना का अभाव होकर उसे शीघ्र ही भगवान की प्राप्ति हो जाती है।
    केवल ‘सब कर्मों के फल का त्‍याग’ करने वाला पुरुष न तो यह समझता है कि मुझसे भगवान कर्म करवाते हैं और न यही समझता है कि मैं भगवान के लिये समस्‍त कर्म करता हूँ। वह यह समझता है कि कर्म करने में ही मनुष्‍य का अधिकार है, उसके फल में नहीं (गीता 2:47 से 51 तक), अत: किसी प्रकार का फल न चाहकर यज्ञ, दान, तप, सेवा तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका और शरीर निर्वाह के खान-पान आदि समस्‍त शास्त्रविहित कर्मों को करना ही मेरा कर्तव्‍य है। अतएव वह समस्‍त कर्मों के फलरूप इस लोक और परलोक के भोगों में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्‍याग कर देता है; इससे उसमें राग-द्वेष का सर्वथा अभाव होकर उसे शीघ्र ही परमात्‍मा की प्रा‍प्ति हो जाती है।
    इस प्रकार तीनों के ही साधन का भगवत्‍प्राप्ति रूप एक फल होने पर भी साधकों की मान्‍यता, स्‍वभाव और साधन-प्रणाली में भेद होने के कारण तीन तरह के साधन अलग-अलग बतलाये गये हैं।
    यहाँ यह स्‍मरण रखना चाहिये कि झूठ, कपट, व्‍यभिचार, हिंसा और चोरी आदि निषिद्ध कर्म ‘सर्वकर्म’ में सम्मिलित नहीं है। भोगों में आसक्ति और उनकी कामना होने के कारण ही ऐसे पापकर्म होते हैं और उनके फलस्‍वरूप मनुष्‍य का सब तरह से पतन हो जाता है। इसीलिये उनका स्‍वरूप से ही सर्वथा त्‍याग कर देना बतलाया गया है और जब वैसे कर्मों का ही सर्वथा निषेध है, तब उनके फलत्‍याग का तो प्रसंग ही कैसे आ सकता है।
    भगवान ने पहले मन-बुद्धि को अपने में लगाने के लिये कहा, फिर अभ्‍यासयोग बतलाया, तदनंतर मदर्थ कर्म के लिये कहा और अंत में सर्वकर्म फलत्‍याग के लिये आज्ञा दी और एक में असमर्थ होने पर दूसरे का आचरण करने के लिये कहा; भगवान का इस प्रकार का यह कथन न तो फलभेद की दृष्टि से है, क्‍योंकि सभी का एक ही फल भगवत्‍प्राप्ति है और न एक की अपेक्षा दूसरे को सुगम ही बतलाने के लिये है, क्‍योंकि उपर्युक्‍त साधन एक-दूसरे की अपेक्षा उत्‍तरोतर सुगम नहीं हैं। जो साधन एक के लिये सुगम है, वही दूसरे के लिये कठिन हो सकता है। इस विचार से यह समझ में आता है कि इन चारों साधनों का वर्णन केवल अधिकारिभेद से ही किया गया है।
    जिस पुरुष में सगुण भगवान के प्रेम की प्रधानता है, जिसकी भगवान में स्‍वाभाविक श्रद्धा है, उनके गुण, प्रभाव और रहस्‍य की बातें तथा उनकी लीला का वर्णन जिसको स्‍वभाव से ही प्रिय लगता है- ऐसे पुरुष के लिये इस अध्‍याय के आठवें श्लोक में बतलाया हुआ साधन सुगम और उपयोगी है।
    जिस पुरुष का भगवान में स्‍वाभाविक प्रेम तो नहीं है, किंतु श्रद्धा होने के कारण जो हठपूर्वक साधन करके भगवान में मन लगाना चाहता है- ऐसी प्रकृति वाले पुरुष के लिये इस अध्‍याय के नवें श्लोक में बतलाया हुआ साधन सुगम और उपयोगी है।
    जिस पुरुष की सगुण परमेश्वर में श्रद्धा है तथा यज्ञ, दान, तप आदि कर्मों में जिसका स्‍वाभाविक प्रेम है और भगवान की प्रतिमादि की सेवा-पूजा करने में जिसकी श्रद्धा है- ऐसे पुरुष के लिये इस अध्‍याय के दसवें श्लोक में बतलाया हुआ साधन सुगम और उपयोगी है।
    जिस पुरुष का सगुण-साकार भगवान में स्‍वाभाविक प्रेम और श्रद्धा नहीं है, जो ईश्वर के स्‍वरूप को केवल सर्वव्‍यापी निराकार मानता है, व्‍यावहारिक और लोकहित के कर्म करने में ही जिसका स्‍वाभाविक प्रेम है- ऐसे पुरुष के लिये इस श्लोक में बतलाया हुआ साधन सुगम और उपयोगी है।

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