महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 53-55

पञ्चत्रिंश (35) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 53-55 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 11

श्रीभगवान बोले- मेरा जो चतुर्भुज रूप तुमने देखा है, यह सुदुर्दर्श है अर्थात इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं। जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है- इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ।[1] संबंध- यदि उपर्युक्‍त उपायों से आपके दर्शन नहीं हो सकते तो किस उपाय से हो सकते हैं, ऐसी जिज्ञासा होने पर भगवान कहते हैं।

परंतु हे परंतप अर्जुन! अनन्‍य भक्ति के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं प्रत्‍यक्ष देखने के लिये[2] तत्त्व से जानने के लिये तथा प्रवेश करने के लिये अर्थात एकीभाव से प्राप्‍त होने के लिये भी शक्‍य हूँ। संबंध- अनन्‍यभक्ति के द्वारा भगवान को देखना, जानना और एकीभाव से प्राप्‍त करना सुलभ बतलाया जाने के कारण अनन्‍य भक्ति का स्‍वरूप जानने की आकांक्षा होने पर अब अनन्‍य भक्त के लक्षणों का वर्णन किया जाता है- हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्‍पूर्ण कर्तव्‍य-कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्‍पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है- वह अनन्‍य भक्तियुक्‍त पुरुष मुझ को ही प्राप्‍त होता है।[3]


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्‍तर्गतब्रह्माविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुनसंवाद में विश्वरूप दर्शन योग नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ ॥11॥ भीष्‍मपर्व में पैंतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता के नवम अध्‍याय के सत्तईसवें और अट्ठाईसवें श्लोकों मे यह कहा गया है कि तुम जो कुछ यज्ञ करते हो, दान देते हो और तप करते हो- सब मेरे अर्पण कर दो; ऐसा करने से तुम सब कर्मों से मुक्‍त हो जाओगे और मुझे प्राप्‍त हो जाओगे तथा गीता के सतरहवें अध्‍याय के पच्चीसवें श्लोक में यह बात कही गयी है कि मोक्ष की इच्‍छा वाले पुरुषों द्वारा यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएं फल की इच्‍छा छोड़कर की जाती हैं; इससे यह भाव निकलता है कि यज्ञ, दान और तप मुक्ति में और भगवान की प्राप्ति में अवश्‍य ही हेतु हैं, किंतु इस श्लोक में भगवान ने यह बात कही है कि मेरे चतुर्भुज रूप के दर्शन न तो वेद के अध्‍ययनाध्‍यापन से ही हो सकते हैं और न तप, दान और यज्ञ से ही।
    पर इसमें कोई विरोध की बात नहीं है, क्‍योंकि कर्मों को भगवान के अर्पण करना अनन्‍यभक्ति का एक अंग है। इसी अध्‍याय के पचपनवें श्लोक में अनन्‍य भक्ति का वर्णन करते हुए भगवान ने स्‍वयं ‘मत्‍कर्मकृत्’ (मेरे लिये कर्म करने वाला) पद का प्रयोग किया है और चौवनवें श्लोक में यह स्‍पष्‍ट घोषणा की है कि अनन्‍य भक्ति के द्वारा मेरे इस स्‍वरूप को देखना, जानना और प्राप्‍त करना सम्‍भव है। अतएव यहाँ यह समझना चाहिये कि निष्‍कामभाव से भगवदर्थ और भगवदर्पणबुद्धि से किये हुए यज्ञ, दान और तप आदि कर्म भक्ति के अंग होने के कारण भगवान की प्राप्ति में हेतु हैं- सकामभाव से किये जाने पर नहीं। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्‍त यज्ञादि क्रियाएं भगवान का दर्शन कराने में स्‍वभाव से समर्थ नहीं हैं। भगवान के दर्शन तो प्रेमपूर्वक भगवान के शरण होकर निष्‍कामभाव से कर्म करने पर भगवत्‍कृपा से ही होते हैं।
  2. भगवान में ही अनन्‍य प्रेम हो जाना तथा अपने मन, इन्द्रिय और शरीर एंव धन, जन आदि सर्वस्‍व को भगवान का समझकर भगवान के लिये भगवान की ही सेवा में सदा के लिये लगा देना- यही अनन्‍य भक्ति है। इस अनन्‍य भक्ति को ही भगवान के देखे जाने आदि में हेतु बतलाया गया है। यद्यपि सांख्‍ययोग के द्वारा भी निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्ति बतलायी गयी है और वह सर्वथा सत्‍य है, परंतु सांख्‍ययोग के द्वारा सगुण-साकार भगवान के दिव्‍य चतुर्भुज रूप के दर्शन हो जायं, ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्‍योंकि सांख्‍ययोग के द्वारा साकार रूप में दर्शन देने के लिये भगवान बाध्‍य नहीं हैं। यहाँ प्रकरण भी सगुण भगवान के दर्शन का ही है। अतएव यहाँ केवल अनन्‍य भक्ति को ही भगवद्दर्शन आदि में हेतु बतलाना उचित ही है।,
  3. इस कथन का भाव पिछले चौवनवें श्लोक के अनुसार सगुण भगवान के प्रत्‍यक्ष दर्शन कर लेना, उनको भली-भाँति तत्त्‍व से जान लेना और उनमें प्रवेश कर जाना है।

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