महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 3-8

त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 3-8 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 9


हे परंतप! इस उपर्युक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष[1] मुझको न प्राप्त होकर मृत्यु रूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं। सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में भगवान् कृष्ण ने जिस विज्ञान सहित ज्ञान का उपदेश करने की प्रतिज्ञा की थी तथा जिसका माहात्म्य वर्णन किया था, अब उसका आरम्भ करते हुए वे सबसे पहले प्रभाव के साथ अपने निराकार स्वरूप के तत्त्व का वर्णन अर्जुन से करते हैं और कहते हैं- हे अर्जुन! मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत[2] जल से बरफ -के सदृश परिपूर्ण है[3] और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं[4] किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।[5] वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं है किंतु मेरी ईश्‍वरीय योग[6] शक्ति को देख[7] कि भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरी आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है।[8]

जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान वायु सदा आकाश में ही स्थित है। वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं। ऐसा जान[9] सम्बन्ध- विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करते हुए भगवान् ने यहाँ तक प्रभाव सहित अपने निराकार स्वरूप तत्त्व समझाने के लिये अपने को सब में व्यापक‚ सबका आधार‚ सबका उत्पादक‚ और निर्विकार बतलाया। अब अपने भूतभावन स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए सृष्टि रचना आदि कर्मों का तत्त्‍व समझाते हैं। हे अर्जुन! कल्पों[10] के अन्त में सब भूत[11] मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं[12] अर्थात प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ[13] अपनी प्रकृति को अंगीकार[14] करके स्वभाव के बल से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ[15] सम्बन्ध- इस प्रकार जगत रचनादि समस्त कर्म करते हुए भी भगवान् उन कर्मों के बन्धन में क्यों नहीं पड़ते अब यही तत्त्‍व समझाने के लिये भगवान् कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पिछले श्लोक में जिस विज्ञान सहित ज्ञान का माहात्म्य बतलाया गया है और इसके आगे पूर्व अध्याय में जिसका वर्णन है, उसी का वाचक यहाँ ‘अस्य’ विशेषण के सहित ‘धर्मस्य’ पद है। इस प्रसंग में वर्णन किये हुए भगवान् के स्वरूप, प्रभाव, गुण और महत्त्व को, उनकी प्राप्ति के उपाय को और उसके फल को सत्य न मानकर उसमें असम्भावना और विपरीत भावना करना और उसे केवल रोचक उक्ति समझना आदि जो विश्‍वास विरोधनी भावनाएं हैं -ये जिनमें हो, वे ही श्रद्धारहित पुरुष हैं।
  2. ‘यह सब जगत’ से यहाँ सम्पूर्ण जड-चेतन पदार्थों के सहित समस्त ब्रह्माण्ड समझना चाहिये।
  3. जैसे आकाश से वायु, तेज, जल, पृथ्वी, सुवर्ण से गहने और मिट्टी से उसके बने हुए बर्तन व्याप्त रहते हैं, उसी प्रकार यह सारा विश्‍व इसकी रचना करने वाले सगुण परमेश्‍वर के निराकार रूप से व्याप्त है। श्रुति कहती है-
    ईशा वाश्यमिद सर्वे यात्किंच जगत्यां जगत्। (ईशोपनिषद्‌ 1)
    'इस संसार में जो कुछ जड-चेतन पदार्थसमुदाय है, वह सर्व ईश्वर से व्याप्त है।'
  4. ‘यहाँ सब भूत’ से समस्‍त शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा उनके विषय और वासस्थानों के सहित समस्त चराचर प्राणियों को कहा गया है। भगवान् ही अपनी प्रकृति को स्वीकार करके समस्त जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते हैं उन्होंने ही इस समस्त जगत को अपने किसी अंश में धारण कर रखा है (गीता 10।42) और एक मात्र वे ही सबके गति, भर्ता, निवासस्थान, आश्रय, भव, प्रलय, स्थान और निधान हैं। (गीता 9।18) इस प्रकार सबकी स्थिति भगवान् के अधीन है। इसीलिये सब भूतों को भगवान् में स्थित बतलाया गया है।
  5. बादलों में आकाश की भाँति समस्त जगत् के अंदर अणु-अणु में व्याप्त होने पर भी भगवान् उससे सर्वथा अतीत और सम्बन्ध रहित हैं। समस्त जगत का नाश होने पर भी, बादलों के नाश होने पर आकाश की भाँति, भगवान ज्यों के त्यों रहते है। जगत के नाश से भगवान् का नाश नहीं होता तथा जिस जगह इस जगत की गन्ध भी नहीं है, वहाँ भी भगवान अपनी महिमा में स्थित ही है। यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने यह बात कही है कि वास्तव में मैं उन भूतों में स्थित नहीं हूँ। अर्थात् मैं अपने-आप में ही नित्य स्थित हूँ।
  6. सब के उत्पादक और सब में व्याप्त रहते हुए तथा सब का धारण-पोषण करते हुए भी सबसे सर्वथा निर्लिप्त रहने की जो अद्भुत प्रभावमयी शक्ति है, जो ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी में हो ही नहीं सकती, उसी का यहाँ ‘ऐश्‍वरम् योगम’ इन पदों द्वारा प्रतिपादन किया गया है। इन दो श्लोकों में कही हुई सभी बातों को लक्ष्य में रखकर भगवान् ने अर्जुन को अपना ‘ईश्‍वरीय योग’ देखने के लिये कहा है।
  7. यहाँ भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ‘अर्जुन! तुम मेरी असाधारण योग शक्ति का चमत्कार देखो! यह कैसा आश्चर्य है कि आकाश में बादलों की भाँति समस्त जगत मुझ में स्थित भी है और नहीं भी है। बादलों का आधार आकाश है, परंतु बादल उसमें सदा नहीं रहते। वस्तुतः अनित्य होने के कारण उनकी स्थिर सत्ता भी नहीं है। अतः वे आकाश में नहीं हैं। इसी प्रकार यह सारा जगत मेरी ही योगशक्ति से उत्पन्न है और मैं ही इनका आधार हूँ, इसलिये तो सब भूत मुझमें स्थित है; परंतु ऐसा होते हुए भी मैं इनसे सर्वथा अतीत हूँ, ये मुझमें सदा नहीं रहते, इसलिये ये मुझमें स्थित नहीं हैं। अतएव जब तक मनुष्य की दृष्टि में जगत है, तब तक सब कुछ मुझ में ही है मेरे सिवा इस जगत का कोई दूसरा आधार है ही नहीं। जब मेरा साक्षात हो जाता है, तब उसकी दृष्टि में मुझमें भिन्न कोई वस्तु रह नहीं जाती, उस समय मुझमें यह जगत नहीं है।
  8. वास्तव में भगवान् इस समस्त जगत से अतीत हैं, यही भाव दिखलाने के लिये ‘वह भूतों में स्थित नहीं है’ ऐसा कहा गया है।
  9. आकाश की भाँति भगवान् को सम‚ निराकर‚ अकर्ता‚ अनन्त‚ असंग और निर्विकार तथा वायु की भाँति समस्त चराचर भूतों को भगवान् से ही उत्पन्न, उन्हीं में स्थित और उन्हीं में लीन होने वाले बतलाने के लिये ऐसा कहा गया है। जैसे वायु की उत्पत्ति, स्थिति और लय आकाश में ही होने के कारण वह कभी किसी भी अवस्था में आकाश से अलग नहीं रह सकता, सदा ही आकाश में स्थित रहता है एवं ऐसा होने पर आकाश का वायु से और उसके गमनादि विकारों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, वह सदा ही उससे अतीत है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और लय भगवान् के संकल्प के आधार होने के कारण समस्त भूत समुदाय सदा भगवान् में ही स्थित रहता है तथापि भगवान् उन भूतों से सर्वथा अतीत हैं और भगवान् में सदा ही‚ सब प्रकार के विकारों का सर्वथा अभाव है।
  10. ब्रह्मा के एक दिन को ‘कल्पʼ कहते हैं और उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है। इस अहोरात्रि के हिसाब से जब ब्रह्मा के सौ वर्ष पूरे होकर ब्रह्मा की आयु समाप्त हो जाती है। उस काल का वाचक यहाँ ‘कल्पक्षयʼ है वहीं कल्पों का अन्त है। इसी को ‘महाप्रलयʼ भी कहते हैं।
  11. शरीर, इन्द्रिय‚ मन‚ बुद्धि, समस्त भोग वस्तु और वासस्थान के सहित चराचर प्राणियों का वाचक ‘सर्वभूतानिʼ पद है।
  12. समस्त जगत् की कारण भूता जो मूलः प्रकृति है‚ जिसे गीता के चौदहवें अध्याय के तीसरे चौथे श्लोकों में ‘महद्ब्रह्मʼ कहा है तथा जिसे अव्याकृत और प्रधान भी कहते हैं, उसका वाचक यहाँ ‘प्रकृतिʼ शब्द है। वह प्रकृति भगवान् की शक्ति है। इसी बात को दिखलाने के लिये भगवान् ने उसको अपनी प्रकृति बतलाया है। कल्पों के अन्त में समस्त शरीर‚ इन्द्रिय‚ मन‚ बुद्धि‚ भोग सामग्री और लोकों के सहित समस्त प्राणियों का प्रकृति में लय हो जाना- अर्थात् उनके गुण कर्मों के संस्कार समुदाय रूप कारण शरीर सहित उनका मूल प्रकृति में विलीन हो जाना ही ‘सब भूतों का प्रकृति को प्राप्त होनाʼ है।
  13. कल्पों का अन्त होने के बाद यानी ब्रह्मा के सौ वर्ष के बराबर समय पूरा होने पर जब पुनः जीवों के कर्मों का फल भुगताने के लिये जगत का विस्तार करने की भगवान् में स्फुरणा होती है‚ उस काल का वाचक ‘कल्पादिʼ शब्द है। इसे महासर्ग का आदि भी कहते हैं। उस समय जो भगवान् का सब भूतों की उत्पत्ति के लिये अपने संकल्प के द्वारा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को उनके लोकसहित उत्पन्न कर देना है‚ यही उनका सब भूतों को रचना है।
  14. सृष्टिरचनादि कार्य के लिये भगवान् का जो शक्ति रूप से अपने अंदर स्थित प्रकृति को स्मरण करना है‚ वही उसे अंगीकार करना है।
  15. भिन्न-भिन्न प्राणियों का जो अपने-अपने गुण और कर्मों कि अनुसार बना हुआ स्वभाव है‚ वही उनकी प्रकृति है। भगवान् की प्रकृति समष्टि-प्रकृति उसी की एक अंशभूता व्यष्टि-प्रकृति है। उस व्यष्टि-प्रकृति के बन्धन में पड़े रहना ही उसके बल से परतन्त्र होना है। यहाँ भगवान् ने उनको बार-बार इसी प्रकार प्रत्येक कल्प के आदि में उनके के भिन्न-भिन्न गुण कर्मों के अनुसार नाना योनियों में उत्पन्न करता रहता हूँ।

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