महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 19-23

त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 19-23 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 9


मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ[1] हे अर्जुन! मैं ही अमृत[2] और मृत्यु[3] और सत् असत् भी मैं ही हूँ।[4] सम्बन्ध- तेरहवें से पंद्रहवें श्लोक तक अपने सगुण-निर्गुण और विराट रूप की उपासनाओं का वर्णन करके भगवान् ने उन्नीसवें श्लोक तक समस्त विश्‍व को अपना स्वरूप बतलाया। ‘समस्त विश्‍व मेरा ही स्वरूप होने के कारण इन्द्र आदि अन्य देवों की उपासना भी प्रकारान्तर से मेरी ही उपासना है‚ परंतु ऐसा न जानकर फला सक्तिपूर्वक पृथक पृथक भाव से उपासना करने वाले को मेरी प्राप्ति न होकर विनाशी फल ही मिलता है।’ इसी बात को दिखलाने के लिये अब दो श्लोकों में उस उपासना का फल सहित वर्णन करते हैं। तीनों वेदों में विधान किये हुए सकर्मों को करने वाले‚ सोमरस पीने वाले‚ पाप रहित पुरुष[5] मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को[6] प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।

वे उस विशाल[7] स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधन रूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं‚ अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में जाते हैं।[8] किन्‍तु जो अनन्‍य[9] प्रेमी भक्‍तजन मुझ परमेश्‍वर को निरन्‍तर चिन्‍तन करते हुए निष्‍काम भाव से भजते हैं,[10] उन नित्‍य निरन्‍तर मेरा चिन्‍तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्‍वयं प्राप्‍त कर देता हूँ।[11] हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा[12] से युक्‍त जो सकाम भक्‍त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, किन्‍तु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात अज्ञानपूर्वक हैं।[13]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि अपनी किरणों द्वारा समस्त जगत् को उष्णता और प्रकाश प्रदान करने वाला तथा समुद्र आदि स्थानों से जल को उठाकर रोक रखने वाला तथा उसे लोक हितार्थ मेघों के द्वारा यथासमय यथायोग्य वितरण करने वाला सूर्य भी मेरा ही स्वरूप है।
  2. वास्तव में अमृत तो एक भगवान् ही हैं, जिनकी प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य सदा के लिये मृत्यु के पाश से मुक्त हो जाता है‚ इसीलिये भगवान् ने अपने को ‘अमृत’ कहा है और इसलिये मुक्ति को भी ‘अमृत’ कहते हैं।
  3. सबका नाश करने वाले ‘काल’ को ‘मृत्यु’ कहते हैं। भगवान् ही यथा समय लोकों का संहार करने के लिये महाकाल रूप धारण किय रहते हैं। वे काल के भी काल हैं। इसीलिये भगवान् ने ‘मृत्यु’ को अपना स्वरूप बतलाया है।
  4. जिसका कभी अभाव नहीं होता‚ उस अविनाशी आत्मा को ‘सत्’ कहते हैं और नाशवान अनित्य वस्तु मात्र का नाम ‘असत्’ है। इन्हीं दोनों को गीता के पंद्रहवें अध्याय में ‘अक्षर’ और ‘क्षर’ पुरुष के नाम से कहा गया है। ये दोनों ही भगवान् से अभिन्न हैं‚ इसलिये भगवान् ने सत् और असत् को अपना स्वरूप कहा है।
  5. ऋक्‚ यजु और साम- इन तीनों वेदों के ‘वेदत्रयी’ अथवा त्रिविद्या कहते हैं। इन तीनों वेदों में वर्णित नाना प्रकार के यज्ञों की विधि और उनके फल में श्रद्धा- प्रेम रखने वाले एवं उसके अनुसार सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों को ‘त्रैविद्य’ कहते हैं। यज्ञों में सोमलता के रसपान की जो विधि बतलायी गयी है‚ उस विधि से सोमलता के रसपान करने वालों को ‘सोमपा’ कहते हैं। उपर्युक्त वेदोक्त कर्मों का विधिपूर्वक अनुष्ठान करने से जिनके स्वर्ग प्राप्ति में प्रतिबंध स्वरूप पाप नष्ट हो गयें हैं उनको 'पूतपाप' कहते हैं। ये तीनों विशेषण ऐसी श्रेणी के मनुष्यों के लिये हैं‚ जो भगवान् की सर्वरूपता से अनभिज्ञ हैं और वेदोक्त कर्म काण्ड पर प्रेम और श्रद्धा रखकर कर्मों से बचते हुए सकाम भाव से यज्ञादि कर्मों का विधिपूर्वक अनुष्ठान किया करते हैं।
  6. यज्ञादि पुण्य कर्मों के फलरूप में प्राप्त होने वाले इन्द्र लोक से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त जितने भी लोक हैं‚ उन सबको लक्ष्य करके श्लोक में ‘पुण्यम्’ विशेषण सहित ‘सुरेन्द्रलोकम्’ पद का प्रयोग किया गया है। अतः ‘सुरेन्द्रलोकम्’ पद इन्द्र लोक का वाचक होते हुए भी उसे उपर्युक्त सभी लोकों का वाचक समझना चाहिये।
  7. स्वर्गादि लोकों के विस्तार का वहाँ की भोग्य वस्तुओं का‚ भोग प्रकारों का‚ भोग्य वस्तुओं की सुख रूपता का और भोगने योग्य शारीरिक तथा मानसिक शक्ति और परमाणु आदि सभी का अनेक प्रकार का परिमाण मृत्यु लोक की अपेक्षा कहीं विशद और महान् है। इसीलिये उसको ‘विशाल’ कहा गया है।
  8. भगवान् के स्वरूप तत्त्‍व को न जानने वाले सकाम मनुष्य अनन्य चित्त से भगवान् शरण ग्रहण नहीं करते‚ भोग कामना के वश में होकर उपर्युक्त धर्म का आश्रय लेते हैं। इसी कारण उनके कर्मों का फल अनित्य हैं और इसीलिये उन्हें फिर मृत्‍यु लोक में लौटना पड़ता है।
  9. जिनका संसार के समस्त भोगों से प्रेम हटकर केवल मात्र भगवान् में अटल और अचल प्रेम हो गया है‚ भगवान् का वियोग जिनके लिये असह्य है‚ जिनका भगवान् से भिन्न दूसरा कोई भी उपास्यदेव नहीं है और जो भगवान् को ही परम आश्रय‚ परम गति और परम प्रेमास्पद मानते हैं-ऐसे अनन्य प्रेमी एक निष्ठ भक्तों का विशेषण ‘अनन्याः’ पद है।
  10. सगुण भगवान् पुरुषोत्‍तम के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्‍य को समझकर, चलते-‍फिरते, उठते- बैठते, सोते–जागते और एकान्‍त में साधन करते, सब समय निरन्‍तर अविच्छिन्‍न रूप से उनका चिन्‍तन करते हुए, उन्‍हीं के आज्ञानुसार निष्‍काम भाव से उन्‍हीं की प्रसन्‍नता के लिये चेष्टा करते रहना– यही ‘उनका चिन्‍तन करते हुए भजन करना’ है।
  11. अप्राप्‍त की प्राप्ति नाम ‘योग’ और प्राप्‍त की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है। अतः भगवान् की प्राप्ति के लिये जो साधन उन्‍हें प्राप्‍त है, सब प्रकार के विघ्‍न बाधाओं से बचाकर उसकी रक्षा करना और जिस साधन की कमी है, उसकी पूर्ति करके स्‍वयं अपनी प्राप्ति करा देना- यही ‘उन प्रेमी भक्‍तों का योगक्षेम चलाना’ है भक्‍त प्रह्लाद का जीवन इसका सुन्‍दर उदाहरण है हिरण्‍यकशिपु द्वारा उसके साधन में बड़े-बड़े विघ्‍न उपस्थित किये जाने पर भी सब प्रकार से भगवान् ने उसकी रक्षा करके अन्‍त में उसे अपनी प्राप्ति करवा दी। जो पुरुष भगवान् के ही परायण होकर अनन्‍यचित से उनका प्रेमपूर्वक निरन्‍तर चिन्‍तन करते हुए ही सब कार्य करते हैं, अन्‍य किसी भी विषय की कामना, अपेक्षा और चिन्‍ता नहीं करते, उनके जीवन निर्वाह का सारा भार भी भगवान् पर रहता है अतः वे सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वदशी, परम सुहृदय भगवान् ही अपने भक्‍त का लौकिक और पारमार्थिक सब प्रकार का योगक्षेम चलाते हैं।
  12. वेद-शास्‍त्रों में वर्णित देवता, उनकी उपासना और स्‍वर्गादि की प्राप्ति रूप उसके फल पर जिनका आदरपूर्वक दृढ़ विश्‍वास हो, उनको यहाँ ‘श्रद्धा से युक्‍त’ कहा गया है और इस विशेषण का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जो बिना श्रद्धा के दम्‍भपूर्वक यज्ञादि कर्मों द्वारा देवताओं का पूजन करते हैं, वे इस श्रेणी में नहीं आ सकते; उनकी गणना तो आसुरी प्रकृति के मनुष्‍यों में है।
  13. जिस कामना की सिद्धि के लिये जिस देवता की पूजा का शास्‍त्र में विधान है, उस देवता की शास्‍त्रोक्‍त यज्ञादि कर्मों द्वारा श्रद्धापूर्वक पूजा करना ‘दूसरे देवताओं की पूजा करना’ है समस्‍त देवता भी भगवान् के ही अंगभूत हैं, भगवान् ही सबके स्‍वामी हैं और वस्‍तुतः भगवान् ही उनके रूप में प्रकट हैं- इस तत्त्व को न जानकर उन देवताओं को भगवान् से भिन्‍न समझकर सकाम भाव से जो उनकी पूजा करना है, यही भगवान् की ‘अविधिपूर्वक’ पूजा है।

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