महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 32 श्लोक 6-11

द्वात्रिंश (32) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 6-11 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 8

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्‍य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को[1] स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है[2]

इसलिये हे अर्जुन! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।[3]इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर[4] तू नि:संदेह मुझको ही प्राप्त होगा। हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्‍वर के ध्‍यान के अभ्‍यास-रूप योग से युक्त,[5] दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्‍य परम प्रकाश स्वरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्‍वर को ही प्राप्त होता है।[6] जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता,[7] सूक्ष्‍म से भी अति सूक्ष्‍म, सबके धारण-पोषण करने वाले, चिन्त्यस्वरूप, सूर्य के सुदृश नित्य चेतन प्रकाशरूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिादानन्दघन परमेश्‍वर का स्मरण करता है, वह भक्तियुक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी-के मध्‍य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यस्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।

सम्बन्ध- पांचवें श्‍लोक में भगवान् का चिन्तन करते-करते मरने वाले साधारण मनुष्‍य को गति का संक्षेप में वर्णन किया गया, फिर आठवें से दसवें श्‍लोक तक भगवान् का ‘अधियज्ञ’ नामक सगुण निराकार दिव्य अव्यक्त स्वरूप का चिन्तन करने वाले योगियों की अन्तकालीन गति के सम्बन्ध में बतलाया, अब ग्यारहवें श्‍लोक से तेरहवें तक परम अक्षर निर्गुण निराकार परब्रह्म की उपासना करने-वाले योगियों की अन्तकालीन गति का वर्णन करने के लिये पहले उस अक्षर ब्रह्म की प्रशंसा करके उसे बतलाते हैं। वेद के जानने वाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम-पद को अविनाशी कहते हैं,[8] आसक्ति रहित यत्नशील, संन्यासी महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिये संक्षेप कहूंगा।[9] यहाँ भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की है कि उपर्युक्त वाक्यों में जिस परब्रह्म परमात्मा का निर्देश किया गया है, वह ब्रह्म कौन है और अन्तकाल में किस प्रकार साधन करने वाला मनुष्‍य उसको प्राप्त होता है- यह बात में तुम्हें संक्षेप से कहूंगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ईश्‍वर, देवता, मनुष्‍य, पशु, पक्षी, कीट, पंतग, वृक्ष, मकान, जमीन आदि जितने भी चेतन और जड़ पदार्थ हैं, उन सबका नाम ‘भाव’ है। अन्तकाल में किसी भी पदार्थ का चिन्तन करना, उस भाव का स्मरण करना है।
  2. अन्तकाल में प्राय: उसी भाव का स्मरण होता है जिस भाव से चित्त सदा भावित होता है। पूर्व संस्कार, संग, वातावरण, आसक्ति, कामना, भय और अध्‍ययन आदि के प्रभाव से मनुष्‍य जिस भाव का बार-बार चिन्तन करता है, वह उसी से भावित हो जाता है तथा मरने के बाद सूक्ष्‍म रूप से अन्त:करण में अंकित हुए उस भाव से भावित होता-होता समय पर उस भाव को पूर्णतया प्राप्त हो जाता है। किसी मनुष्‍य का छायाचित्र (फोटो) लेते समय जिस क्षण फोटो (चित्र) खींचा जाता हैं, उस क्षण में वह मनुष्‍य जिस प्रकार से स्थित होता है, उसका वैसा ही चित्र उतर जाता है; उसी प्रकार अन्तकाल में मनुष्‍य जैसा चिन्तन करता है, वैसे ही रूप का फोटो उसके अन्त:करण में अङ्कित हो जाता है। उसके बाद फोटो की भाँति अन्य सहकारी पदार्थों की सहायता पाकर उस भाव से भावित होता हुआ वह समय पर स्थूलरूप को प्राप्त हो जाता है। यहाँ अन्त:करण ही कैमरे का प्लेट है, उसमें होने वाला स्मरण ही प्रतिबिम्ब है और अन्य सूक्ष्‍म शरीर की प्राप्ति ही चित्र खींचना है; अतएव जैसे चित्र लेने वाला सबको सावधान करता है और उसकी बात न मानकर इधर-उधर हिलने-डुलने से चित्र बिगड़ जाता है, वैसे ही सम्पूर्ण प्राणियों का चित्र उतारने वाले भगवान् मनुष्‍य को सावधान करते है ‘तुम्हारा फोटो उतरने का समय अत्यन्त समीप है, पता नहीं वह अन्तिम क्षण कब आ जाय; इसलिये तुम सावधान हो जाओ, नहीं तो चित्र बिगड़ जायगा।’ यहाँ निरन्तर परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करना ही सावधान होना है और परमात्मा को छोड़कर अन्य किसी का चिन्तन करना ही अपने चित्र को बिगाड़ना है।
  3. जो भगवान् के गुण और प्रभाव को भली-भाँति जानने वाला अनन्यप्रेमी भक्त है, जो सम्पूर्ण जगत् को भगवान् के द्वारा ही रचित और वास्तव में भगवान् से अभिन्न तथा भगवान् की क्रीड़ास्थली समझता है, उसे प्रह्लाद और गोपियों की भाँति प्रत्येक परमाणु में भगवान् के दर्शन प्रत्यक्ष की भाँति होते रहते हैं; अतएव उसके लिये तो निरन्तर भगवत्स्मरण के सा‍थ-साथ अन्यान्य कर्म करते रहना बहुत आसान बात है तथा जिसका विषयभोगों में वैराग्य होकर भगवान् में मुख्‍य प्रेम हो गया है, जो निष्‍काम भाव से केवल भगवान् की आज्ञा समझकर भगवान् के लिये ही वर्णधर्म के अनुसार कर्म करता है, वह भी निरन्तर भगवान् का स्मरण करता हुआ अन्यान्य कर्म कर सकता है। जैसे अपने पैरों का ध्‍यान रखती हुई नटी बांस पर चढ़कर अनेक प्रकार के खेल दिखलाती है, अथवा जैसे हैंडल पर पूरा ध्‍यान रखता हुआ मोटर-ड्राइवर दूसरों से बातचीत करता है और विपत्ति से बचने के लिये रास्ते की ओर भी देखता रहता है, उसी प्रकार निरन्तर भगवान् का स्मरण करते हुए वर्णाश्रम के सब काम सुचारूरूप से हो सकते हैं।
  4. बुद्धि से भगवान् के गुण, प्रभाव, स्वरूप, रहस्य और तत्त्व को समझकर परमश्रद्धा के साथ अटक निश्‍चय कर लेना और मन से अनन्य श्रद्धा-प्रेमपूर्वक गुण, प्रभाव के सहित भगवान् का निरन्तर चिन्तन करते रहना- यही मन-बुद्धि को भगवान् में स‍मर्पित कर देना है।
  5. यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्‍यान के अभ्‍यास का नाम ‘अभ्‍यासयोग’ है। ऐसे अभ्‍यास-योग के द्वारा जो चित्त भलीभाँति वश में होकर निरन्तर अभ्‍यास में ही लगा रहता है, उसे ‘अभ्‍यासयोगयुक्त’ कहते है।
  6. इसी अध्‍याय के चौथे श्‍लोक में जिसको ‘अधियज्ञ’ कहा है और बाईसवें श्‍लोक में जिसको ‘परम पुरुष’ बतलाया है, भगवान् के उस सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाले सगुण निराकार सर्वव्यापी अव्यक्त ज्ञानस्वरूप को यहाँ ‘दिव्य परम पुरुष’ कहा गया है। उसका चिन्तन करते-करते उसे यथार्थरूप में जानकर उसके साथ तद्रूप हो जाना ही उसको प्राप्त होना है।
  7. परमेश्‍वर अन्तर्यामीरूप से सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने वाले होने से ‘सबके नियन्ता’ हैं।
  8. वेद के जानने वाले ज्ञानी महात्मा पुरुष कहते हैं कि यह ‘अक्षर’ है अर्थात् यह एक ऐसा महान् तत्त्व है, जिसका किसी भी अवस्था में कभी भी किसी भी रूप में क्षय नहीं होता; यह सदा अविनश्‍वर, एकरस और एकरुप रहता है। गीता के बारहवें अध्‍यापक के तीसरे श्‍लोक में जिस अव्यक्त अक्षर की उपासना का वर्णन है, यहाँ भी यह उसी का प्रसंग है।
  9. ‘ब्रह्मचर्य’, का वास्तविक अर्थ है, ब्रह्म में अथवा ब्रह्म के मार्ग में संचरण करना- जिन साधनों से ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर हुआ जा सकता है, उनका आचरण करना। ऐसे साधन ही ब्रह्मचारी के व्रत कहलाते हैं, सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना भी इन्हीं के अन्तर्गत हैं। ये ब्रह्मचर्य-आश्रम में आश्रमधर्म के रूप में अवश्‍य पालनीय हैं और साधारणतया तो अवस्था भेद के अनुसार सभी साधनों को यथाशक्ति उनका अवश्‍य पालन करना चाहिये।

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