महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 27-30

एकत्रिंश (31) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 27-30 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 7


क्योकि है भरतवंशी अर्जुन! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दुःख आदि द्वन्द्वरूप मोह से[1] सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं। परंतु निष्कामभाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग द्वेषजनित द्वन्द्वरूप मोह से मुक्त दृढ़निश्रयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं।[2]

जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छुटने के लिये यत्न करते हैं,[3] वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्‍यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं। एवं जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ-के सहित (सबके आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं[4] अर्थात् प्राप्त हो जाते हैं।


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगाशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुनसंवाद में ज्ञान-विज्ञान योग नामक सातवां अध्‍याय पूरा हुआ ॥7॥ भीष्‍मपर्व में इकतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिनको भगवान् मनुष्य के कल्याण मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रु (परिपंथी) बतलाया है और काम-क्रोध के नाम से (गीता 3।37) जिनको पापों में हेतु तथा मनुष्य को वैरी कहा है उन्हीं राग द्वेष का यहाँ और द्वेष के नाम से वर्णन किया है। इन इच्छा-द्वेष से जो हर्ष-शोक और सुख-दुख इत्यादि द्वन्द्व उत्पन्न होते हैं वे इस जीव के अज्ञान को दृढ़ करने में कारण होते हैं अतएव उन्हीं का नाम द्वन्द्व रूप मोह है।
  2. भगवान् को ही सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान् सबके आत्मा और परम पुरुषोत्तम समझकर बुद्धि से उनके तत्त्व निश्चय, मन से उनके गुण, प्रभाव, स्वरूप और लीला-रहस्य का, वाणी से उनके नाम और गुणों का कीर्तन, सिर से उनको नमस्कार, हाथों से उनकी पूजा और दीन दुखी आदि के रूप में उनकी सेवा , नेत्रों से उनके विग्रह के दर्शन, चरणों से उन के मन्दिर और तीर्थादि में जाना तथा अपनी समस्त वस्तुओं को निःशेष रूप से केवल उनके ही अर्पण करके सब प्रकार केवल उन्हीं का हो रहना- यही सब प्रकार से उनको भजना है।
  3. यहाँ भगवान् यह कहते हैं कि ‘जो संसार के सब विषयों के आश्रय को छोड़कर दृढ़ विश्‍वास के साथ एकमात्र मेरा ही आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें ही मन-बुद्धि को लगाये रखते हैं, वे मेरे शरण होकर यत्न करने वाले हैं।’
  4. उन्तीसवें श्‍लोक में वर्णित ‘ब्रह्म’, जीवसमुदायरूप ‘अध्‍यात्म’, भगवान् का आदि संकल्प रूप ‘कर्म’ तथा उपर्युक्त जड़वर्गरूप ‘अधिभूत’, हिरण्‍यगर्भरूप ‘अधिदैव’ और अन्तर्यामीरूप ‘अधियज्ञ’- सब एक भगवान् के ही स्वरूप हैं। यही भगवान् का समग्र रूप है। अध्‍याय के आरम्भ में भगवान् ने इसी समग्ररूप को बतलाने की प्रतिज्ञा की थी। फिर सातवें श्‍लोक-में ‘मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है’, बारहवें में ‘सात्त्विक’ राजस और तामस भाव सब मुझसे ही होते हैं’ और उन्नतीसवें में ‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’ कहकर इसी समग्र का वर्णन किया है तथा यहाँ भी उपर्युक्त शब्दों से इसी का वर्णन करके अध्‍याय का उपसंहार किया गया है। इस समग्र को जान लेना अर्थात् जैसे जल के परमाणु, भाप, बादल, धूम, जल और बर्फ सभी जल स्वरूप ही हैं, वैसे ही ब्रह्म, अध्‍यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ- सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार यथार्थ रूप से अनुभव कर लेना ही समग्र ब्रह्म को या भगवान् को जानना है।

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