महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 4-10

त्रिश (30) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतायां षष्‍ठ)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिश अध्याय: श्लोक 4-10 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 6


जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी[1] पुरुष योगारूढ़ कहा जाता हैं। सम्बन्ध- परमपद की प्राप्ति में हेतु रूप योगारूढ़ अवस्था का वर्णन करके अब उसे प्राप्त करने के लिये उत्साहित करते हूए भगवान् मनुष्‍य का कर्तव्य बतलाते हैं- अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करें[2] और अपने को अधोगति में न डाले; क्योंकि यह मनुष्‍य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु हैं।[3]

जिस जीवात्‍मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है,[4] उस जीवात्‍मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिय वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है[5] संबंध-जिसने मन और इन्द्रियों सहित शरीर को जीत लिया है, वह आप ही अपना मित्र क्‍यों‍ है, इस बात को स्‍पष्‍ट करने के लिये अब शरीर, इन्द्रिय और मन रूप आत्‍मा को वश में करने का फल बतलाते हैं- सरदी-गरमी और सुख-दु:खादि में तथा मान और अपमान में जिसके अंत:करण की वृत्तियां भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्‍वाधीन आत्‍मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्‍मा सम्‍यक् प्रकार से स्थित हैं अर्थात् उसके ज्ञान में परमात्‍मा के सिवा अन्‍य कुछ है ही नहीं। जिसका अंत:करण ज्ञान-विज्ञान से तृप्‍त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियां भलीभाँति जी‍ती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी, पत्‍थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्‍त अर्थात् भगवत् प्राप्‍त हैं, ऐसे कहा जाता है।[6] सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्‍यस्‍थ, द्वेष्‍य[7] और बंधुगणों में, धर्मात्‍माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला[8] अत्‍यंत श्रेष्ठ है।

संबंध- यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि जितात्‍मा पुरुष को परमात्‍मा की प्राप्ति के लिये क्‍या करना चाहिये, वह किस साधन से परमात्‍मा को शीघ्र प्राप्‍त कर सकता है, इसलिये ध्‍यानयोग का प्रकरण आरम्‍भ करते हैं- मन और इन्द्रियोंसहित शरीर वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्‍थान में स्थित होकर आत्‍मा को निरंतर परमात्‍मा में लगावे।[9]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ ‘संकल्पों का त्याग’ का अर्थ स्फुरणामात्र का सर्वथा त्याग नहीं हैं, यदि ऐसा माना जाय तो योगारूढ़-अवस्था-का वर्णन ही असम्भव हो जाय। इसके अतिरिक्त गीता के चौथे अध्‍याय के उन्नीसवें श्‍लोक में भगवान् ने स्पष्‍ट ही कहा है कि ‘जिस महापुरुष के समस्त कर्म कामना और संकल्प के बिना ही भलीभाँति होते हैं, उसे पण्डित कहते हैं।’ उसे वहाँ जिस महापुरुष की ऐसी प्रशंसा की गयी है, वह योगारूढ़़ नहीं है- ऐसा नहीं कहा जा सकता। ऐसी अवस्‍था में यह नहीं माना जा सकता कि संकल्‍परहित पुरुष के द्वारा कर्म नहीं होते। इससे यही सिद्ध होता है कि संकल्‍पों के त्‍याग का अर्थ स्‍फुरणा या वृत्तिमात्र का त्‍याग नहीं है। ममता, आसक्ति और द्वेषपूर्वक जो सांसारिक विषयों का चिंतन किया जाता है, उसे ‘संकल्‍प’ कहते हैं। ऐसे संकल्‍पों का पूर्णतया त्‍याग ही ‘सर्वसंकल्‍पसंन्‍यास’ है।
  2. मानव-जीवन के दुर्लभ अवसर को व्‍यर्थ न खोलकर कर्मयोग, सांख्‍ययोग तथा भक्तियोग आदि किसी भी साधन में लगकर अपने जन्‍म को सफल बना लेना ही अपने द्वारा अपना उद्धार करना है।
    राग-द्वेष, काम-क्रोध और लोभ-मोह आदि दोषों में फंसकर भाँति-भाँति के दुष्‍कर्म करना और उनके फलस्‍वरूप मनुष्‍य–शरीर के परमफल भगवत्‍प्राप्ति से वंचित रहकर पुन: शूकर-कूकरादि योनियों में जाने का कारण बनना अपने को अधो‍गति-में ले जाना है।
    मनुष्‍य को कभी भी यह नहीं समझना चाहिये कि प्रारब्‍ध बुरा है, इसलिये मेरी उन्‍नति होगी ही नहीं; उसका उत्‍थान-पतन प्रारब्‍ध के अधीन नहीं है, उसी के हाथ में है। मनुष्‍य अपने स्‍वभाव और कर्मों में जितना ही अधिक सुधार कर लेता है, वह उतना ही उन्‍नत होता है। स्‍वभाव और कर्मों का सुधार ही उन्‍नति का उत्‍थान है त‍था इसके विपरित स्‍वभाव और कर्मों में दोषों का बढ़ना ही अवनति या पतन है।
  3. जो अपने उद्धार के लिये चेष्‍टा करता है, वह आप ही अपना मित्र है और जो इसके विपरीत करता है, वही अपना शत्रु है इसलिये अपने से भिन्‍न दूसरा कोई भी अपना मित्र या शत्रु नहीं है।
  4. परमात्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्‍य जिन साधनों में अपने शरीर, इन्द्रिय और मन का लगाना चाहे, उनमें जब वे अनायास ही लग जायं और उनके लक्ष्‍य से विपरीत मार्ग की ओर ताकें ही नहीं, तब समझना चाहिये कि ये वश में हो चुके हैं।
  5. असंयमी मनुष्‍य स्‍वयं मन, इन्द्रिय आदि के वश में होकर कुपथ्‍य करने वाले रोगी की भाँति अपने ही कल्‍याण साधन के विपरीत आचरण करता है। वह अहंता, ममता, राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि के कारण प्रमाद, आलस्‍य और विषय-भोगों में फंसकर पाप-कर्मों के कठि बंधंन में पड़ जाता है एवं अपने-आप को बार-बार नरकादि में डालकर और नाना प्रकार की योनियों में भटकाकर अनंतकाल तक भीषण दु:ख भोगने के लिये बाध्‍य करता है। यही शत्रु की भाँति शत्रुता का आचरण करना है।
  6. जो पुरुष तरह-तरह के बडे़-से-बडे़ दु:खों के आ पड़ने पर भी अपनी स्थिति से तनिक भी विचलित नहीं होता, जिसके अंत:करण में जरा भी विकार उत्‍पन्‍न नहीं होता और जो सदा-सर्वदा अचलभाव से परमात्‍मा के स्‍वरूप में स्थि‍त रहता है, उसे ‘कूटस्‍थ’ कहते हैं।
  7. संबंध और उपकार आदि की अपेक्षा न करके बिना ही कारण स्‍वभावत: प्रेम और हित करने वाले ‘सुहृद्’ कहलाते हैं तथा परस्‍पर प्रेम और एक दूसरे का हित करने वाले ‘मित्र’ कहलाते है। किसी निमित्त से बुरा करने की इच्‍छा या चेष्टा करने वाला ‘वेरी’ है और स्‍वभाव से ही प्रतिकूल आचरण करने के कारण जो द्वेष का पात्र हो, वह ‘द्वेष्‍य’ कहलाता है। परस्‍पर झगड़ा करने वालों में मेल कराने की चेष्‍टा करने वाले को और पक्षपात छोड़कर उनके हित के लिये न्‍याय करने वाले को ‘मध्‍यस्‍थ’ कहते हैं तथा उनसे किसी प्रकार का भी संबंध न रखने वाले को ‘उदासीन’ कहते हैं।
  8. उपर्युक्‍त अत्‍यंत विलक्षण स्‍वभाव वाले मित्र, वैरी, साधु और पापी आदि के आचरण, स्‍वभाव और व्‍यवहार भेद का जिस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, जिसकी बुद्धि में किसी समय, किसी परिस्थिति में, किसी भी निमित्त से राग-द्वेषपूर्वक भेदभाव नहीं आता, वही समबुद्धियुक्‍त पुरुष है।
  9. भोग-सामग्री के संग्रह का नाम परिग्रह है, जो उससे रहित हो उसे ‘अपरिग्रह’ कहते हैं। वह यदि गृहस्‍थ हो तो किसी भी वस्‍तु का ममतापूर्वक संग्रह न रखे और यदि ब्रह्मचारी, वानप्रस्‍थ या संन्‍यासी हो तो स्‍वरूप से भी किसी प्रकार का शास्‍त्रप्रतिकूल संग्रह न करे। ऐसे पुरुष किसी भी आश्रम वाले हों ‘अपरिग्रह’ ही हैं।

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