महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 8-15

एकोनत्रिश (29) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनत्रिश अध्याय: श्लोक 8-15 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 5

तत्त्व को जानने वाला सांख्‍ययोगी[1] तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्‍वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आंखों को खोलता और मूंदता हुआ भी, सब इन्द्रियों अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर नि:संदेह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।[2] सम्बन्ध- इस प्रकार सांख्‍ययोगी के साधन का स्वरूप बतलाकर अब दसवें ओर ग्यारहवें श्‍लोकों में कर्मयोगियों के साधन का फलसहित स्वरूप बतलाते हैं- जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके[3] और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता हैं, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता।

कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्यागकर अन्त:करण की शुद्धि के लिये कर्म करते हैं।[4] कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्तिरूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आस‍क्त होकर बंधता हैं।[5] अन्त:करण जिसके वश में हैं, ऐसा सांख्‍ययोग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर[6]आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता हैं। सम्बन्ध- जबकि आत्मा वास्तव में कर्म करने वाला भी नहीं है और इन्द्रियादि से करवाने वाला भी नहीं है, तो फिर सब मनुष्‍य अपने को कर्मों का कर्ता क्यों मानते हैं और वे कर्मफल के भागी क्यों होते हैं? इस पर कहते हैं- परमेश्‍वर मनुष्‍यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं;[7]

किंतु स्वभाव ही बर्त रहा है।[8] सम्बन्ध- जो साधक समस्त कर्मों को और कर्मफलों की भगवान् के अर्पण करके कर्मफल से अपना सम्बन्धविच्छेद कर लेते हैं, उनके शुभाशुभ कर्मों के फल के भागी क्या भगवान् होते हैं। इस जिज्ञासा पर कहते हैं- सर्वव्यापी परमेश्‍वर भी न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है;[9]किंतु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्‍य मोहित हो रहे हैं।[10]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सम्पूर्ण दृश्‍य-प्रपञ्च क्षणभंगुर और अनित्य होने के कारण मृगतृष्‍णा के जल या स्वप्न के संसार की भाँति मायामय है, केवल एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ही सत्य है; उसी में यह सारा प्रपञ्च माया से अध्‍यारोपित है- इस प्रकार नित्यानित्य वस्तु के तत्त्व को समझकर जो पुरुष निरन्तर निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में अभिन्नभाव से स्थित रहता हैं, वही तत्त्व को जानने वाला सांख्‍ययोगी हैं।
  2. जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्‍य समझता है कि स्वप्नकाल में स्वप्न के शरीर, मन, प्राण और इन्द्रियों द्वारा मुझे जिन क्रियाओं के होने की प्रतीत होती थी, वास्तव में न तो वे क्रियाएं होती थीं और न मेरा उनसे कुछ भी सम्बन्ध ही था; वैसे ही तत्त्व को समझकर निर्विकार अक्रिय परमात्मा में अभिन्नभाव से स्थित रहने वाले सांख्‍ययोगी को भी ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण और मन आदि के द्वारा लोकदृष्टि से की जाने वाली देखने-सुनने आदि की समस्त क्रियाओं को करते समय यही समझना चाहिये कि ये सब मायामय मन, प्राण और इन्द्रिय ही अपने-अपने मायामय विषयों में विचर रहे हैं। वास्तव में न तो कुछ हो रहा है और न मेरा इनसे कुछ सम्बन्ध ही हैं।
  3. ईश्‍वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रमानुकूल अर्थोपार्जन सम्बन्धी और खान-पानादि शरीर निर्वाह सम्बन्धी जितने भी शास्त्रविहित कर्म हैं, उन सबको ममता का सर्वथा त्याग करके, सब कुछ भगवान् का समझकर, उन्हीं के लिये उन्हीं की आज्ञा और इच्छा के अनुसार, जैसे वे करावें वैसे ही, कठपुतली की भाँति करना- परमात्मा में सब कर्मों का अर्पण करना है।
  4. कर्मप्रधान कर्मयोगी मन, बुद्धि, शरीर और इन्द्रियों में ममता नहीं रखते और लौकिक स्वार्थ से सर्वथा रहित होकर निष्‍कामभाव से ही समस्त कर्तव्यधर्म करते रहते हैं।
  5. सकामभाव से किये हुए कर्मों के फलस्वरूप बार-बार देव-मनुष्‍यादि योनियों में भटकना ही बन्धन हैं।
  6. स्वरूप से सब कर्मों का त्याग कर देने पर मनुष्‍य की शरीर यात्रा भी नहीं चल सकती। इसलिये मन से-विवेकबुद्धि के द्वारा कर्तृव्य-कारयितृत्त्व का त्याग करना ही सांख्‍ययोगी का त्याग हैं।
  7. मनुष्‍यों का जो कर्मों में कर्तापन है, वह भगवान् का बनाया हुआ नहीं है। अज्ञानी मनुष्‍य अहंकार के वश में होकर अपने को उनका कर्ता मान लेते हैं। (गीता 3।27) मनुष्‍यों के कर्मों की रचना भगवान् नहीं करते, इस कथन का यह भाव है कि अमुक शुभ या अशुभ कर्म अमुक मनुष्‍य को करना पड़ेगा, ऐसी रचना भगवान् नहीं करते; क्यों‍कि ऐसी रचना यदि भगवान् कर दे तो विधि-निषेधशास्त्र ही व्यर्थ हो जाय- उसकी कोई सार्थकता ही नहीं रहे। कर्मफल के संयोग की रचना भी भगवान् नहीं करते, इस कथन का यह भाव है कि कर्मों के साथ सम्बन्ध मनुष्‍यों का ही अज्ञानवश जोड़ा हुआ हैं। कोई तो आसक्ति वश उनका कर्ता बनकर और कोई कर्मफल में आसक्त होकर अपना सम्बन्ध कर्मों के साथ जोड़ लेते हैं। यदि इन तीनों की रचना भगवान् की हुई होती तो मनुष्‍य कर्मबन्धन से छूट ही नहीं सकता, उसके उद्धार का कोई उपाय ही नहीं रह जाता। अत: साधक मनुष्‍य को चाहिये कि कर्मों का कर्तापन पूर्वोंक्त प्रकार से प्रकृत्ति के अर्पण करके (गीता 5।8,9) या भगवान् के अर्पण करके (गीता 5।10) अथवा कर्मों के फल और आसक्ति का सर्वथा त्याग करके (गीता 5।12) कर्मों से अपना सम्बन्धविच्छेद कर ले (गीता 4।20)। यही सब भाव दिखलाने के लिये यह कहा है कि परमेश्‍वर मनुष्‍यों के कर्तापन, कर्म और कर्मफल की रचना नहीं करते।
  8. इस कथन का यह अभिप्राय है कि सत्त्व, रज और तम तीनों गुण, राग-द्वेष आदि समस्त विकार, शुभाशुभ कर्म और उनके संस्कार, इन सबके रूप में परिणत हुई प्रकृत्ति अर्थात् स्वभाव ही सब कुछ करता हैं। प्राकृत जीवों के साथ इसका अनादिसिद्ध संयोग है। इसी से उनमें कर्तृत्वभाव उत्पन्न हो रहा है अर्थात् अहंकार से मोहित होकर वे अपने को उनका कर्ता मान लेते हैं (गीता 3।27) तथा इसी में कर्म और कर्मफल से भी उनका सम्बन्ध हो जाता है और वे उनके बन्धन में पड़ जाते हैं। वास्तव में आत्मा का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है।
  9. सबके हृदय में रहने वाले (गीता13।17;15।15;18।61) और सम्पूर्ण जगत् का अपने संकल्प द्वारा संचालन करने वाले सर्वशक्तिमान् सगुण निराकार परमेश्‍वर किसी के पुण्‍य-पापों का ग्रहण नहीं करते। यद्यपि समस्त कर्म उन्हीं की शक्ति से मनुष्‍यों द्वारा किये जाते हैं, सबको शक्ति, बुद्धि और इन्द्रियां आदि उनके कर्मानुसार वे ही प्रदान करते हैं; तथापि वे उनके द्वारा किये हुए कर्मों को ग्रहण नहीं करते अर्थात् स्वयं उन कर्मों के फल के भागी नहीं बनते।
  10. यहाँ यह शंका होती है कि यदि वास्तव में मनुष्‍यों का या परमेश्‍वर का कर्मों से और उनके फल से सम्बन्ध नहीं है तो फिर संसार में जो मनुष्‍य यह समझते है कि ‘अमुक कर्म मैंने किया हैं’, ‘यह मेरा कर्म है’, ‘मुझे इसका फल मिलेगा’, यह क्या बात है? इसी शंका का निराकरण करने के लिये कहते हैं कि अनादिसिद्ध अज्ञान द्वारा सब जीवों का यथार्थ ज्ञान ढका हुआ है। इसीलिये वे अपने और परमेश्‍वर के स्वरूप को तथा कर्म के तत्त्व को न जानने के कारण अपने में और ईश्‍वर में कर्ता, कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध की कल्पना करके मोहित हो रहे हैं।

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