महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 122 श्लोक 22-39

द्वाविंशत्‍यधिकशततम (122) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: द्वाविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद


कर्ण ने कहा- 'महाबाहो! भीष्म! आप जो कुछ कह रहे हैं, उसे मैं भी जानता हूँ। यह सब ठीक है, इसमें संशय नहीं है। वास्तव में मैं कुंती का ही पुत्र हूं, सूतपुत्र नहीं हूँ। परंतु माता कुंती ने तो मुझे पानी में बहा दिया और सूत ने मुझे पाल-पोषकर बड़ा किया। पूर्वकाल से ही मैं दुर्योधन के साथ स्नेह करता आया हूँ और प्रसन्नतापूर्वक रहा हूँ। दुर्योधन से मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि तुम्हारा जो-जो दुष्कर कार्य होगा, वह सब मैं पूरा करूंगा। दुर्योधन का ऐश्वर्य भोगकर मैं उसे निष्फल नहीं कर सकता। जैसे वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण पाण्डुपुत्र अर्जुन की सहायता के लिये दृ‍ढ़ प्रतिज्ञ हैं, उसी प्रकार मेरे धन, शरीर, स्त्री, पुत्र तथा यश सब कुछ दुर्योधन के लिये निछावर हैं। यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुरुनंदन भीष्म! मैंने दुर्योधन का आश्रय लेकर पाण्डवों का क्रोध सदा इसलिये बढ़ाया है कि यह क्षत्रिय-जाति रोगों का शिकार होकर न मरे (युद्ध में वीर गति प्राप्त करे)।

यह युद्ध अवश्यम्भावी है। इसे कोई टाल नहीं सकता। भला, दैव को पुरुषार्थ के द्वारा कौन मिटा सकता है। पितामह! आपने भी तो ऐसे निमित्त (लक्षण) देखे थे, जो भूमण्डल के विनाश की सूचना देने वाले थे। आपने कौरव-सभा में उनका वर्णन भी किया था। पाण्डवों तथा भगवान् वासुदेव को मैं सब प्रकार से जानता हूं, वे दूसरे पुरुषों के लिये सर्वथा अजेय हैं, तथापि मैं उनसे युद्ध करने का उत्साह रखता हूँ और मेरे मन का यह निश्चित विश्वास है कि मैं युद्ध में पाण्डवों को जीत लूंगा। पाण्डवों के साथ हम लोगों का यह वैर अत्यंत भयंकर हो गया है। अब इसे दूर नहीं किया जा सकता। मैं अपने धर्म के अनुसार प्रसन्नचित्त होकर अर्जुन के साथ युद्ध करूंगा। तात! मैं युद्ध के लिये निश्चय कर चुका हूँ। वीर! मेरा विचार है कि आपकी आज्ञा लेकर युद्ध करूं। अत: आप मुझे इसके लिये आज्ञा देने की कृपा करें। मैंने क्रोध के आवेग से अथवा चपलता के कारण यहाँ जो कुछ आपके प्रति कटुवचन कहा हो या आपके प्रतिकूल आचरण किया हो, वह सब आप कृपापूर्वक क्षमा कर दें।'

भीष्म ने कहा- 'कर्ण! यदि यह भयंकर वैर अब नहीं छोड़ा जा सकता तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, तुम स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से युद्ध करो। दीनता और क्रोध छोड़कर अपनी शक्ति और उत्साह के अनुसार सत्पुरूषों के आचार में स्थिर रहकर युद्ध करो। तुम रणक्षेत्र में पराक्रम कर चुके हो और आचारवान तो हो ही। कर्ण! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम जो चाहते हो, वह प्राप्त करो। धनंजय के हाथ से मारे जाने पर तुम्हें क्षत्रिय धर्म के पालन से प्राप्त होने वाले लोकों की उपलब्धि होगी। तुम अभिमानशून्य होकर बल और पराक्रम का सहारा ले युद्ध करो, क्षत्रिय के लिये धर्मानुकूल युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्या‍णकारी साधन नहीं है। कर्ण! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। मैंने कौरवों और पाण्डवों में शांति स्थापित करने के लिये दीर्घकाल तक महान प्रयत्न किया था; किंतु मैं उसमें कृतकार्य न हो सका।' संजय कहते हैं- राजन्! गंगानंदन भीष्म के एसा कहने पर राधानंदन कर्ण उन्हें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले रथ पर आरूढ़ हो आपके पुत्र दुर्योधन के पास चला गया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अंतर्गत भीष्मवधपर्व में भीष्म-कर्ण संवाद विषयक एक सौ बाईसवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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