महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 119 श्लोक 98-122

एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनविशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 98-122 का हिन्दी अनुवाद


वे मानस सरोवर में निवास करने वाले हंसरूपधारी महर्षि एक साथ उड़ते हुए बड़ी उतावली के साथ कुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म को दर्शन करने के लिये उस स्थान पर आये, जो वे नरश्रेष्ठ बाणशय्या पर सो रहे थे। उन हंसरूपधारी ऋषियों ने वहाँ पहुँचकर कुरुकुलधुरन्धर वीर भीष्म को बाण शय्या पर सोये हुए देखा। उन भरतश्रेष्ठ महात्मा गंगानन्दन भीष्म का दर्शन करके ऋषियों ने उनकी प्रदक्षिणा की। फिर दक्षिणायनयुक्त सूर्य के संबंध में परस्पर सलाह करके वे मनीषी मुनि इस प्रकार बोले- ‘भीष्म जी महात्मा होकर दक्षिणायन में कैसे अपनी मृत्यु स्वीकार करेंगे’। ऐसा कहकर वे हंसगण दक्षिण दिशा की ओर चले गये। भारत! हंसों के जाते समय उन्हें देखकर परम बुद्धिमान भीष्म ने कुछ चिन्तन करके उनसे कहा- ‘मैं सूर्य के दक्षिणायन रहते किसी प्रकार यहाँ से प्रस्थान नहीं करूंगा। यह मेरे मन का निश्चित विचार है। हंसो! सूर्य के उत्तरायण होने पर ही मैं उस लोक की यात्रा करूंगा, जो मेरा पुरातन स्थान है। यह मैं आप लोगों से सच्ची बात कह रहा हूँ। मैं उत्तरायण की प्रतीक्षा में अपने प्राणों को धारण किये रहूंगा, क्योंकि मैं जब इच्छा करूं, तभी अपने प्राणों को छोडूं, यह शक्ति मुझे प्राप्त है। अतः उत्तरायण में मृत्यु प्राप्त करने की इच्छा से मैं अपने प्राणों को धारण करूंगा। मेरे महात्मा पिता ने मुझे जो वर दिया था कि तुम्हें अपनी इच्छा होने पर ही मृत्यु प्राप्त होगी, उनका यह वरदान सफल हो। मैं प्राण त्याग का नियत समय आने तक अवश्य इन प्राणों को रोक रखूंगा।' उस समय उन हंसों से ऐसा कहकर ये बाण शय्या पर पूर्ववत सोये रहे।

इस प्रकार कुरुकुल शिरोमणि महापराक्रमी भीष्म के गिर जाने पर पाण्डव और सृंजय हर्ष से सिंहनाद करने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन महान शक्तिशाली भरतवंशियों के पितामह भीष्म के मारे जाने पर आपके पुत्रों को कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। उस समय कौरवों पर बड़ा भयंकर मोह छा गया। कृपाचार्य और दुर्योधन आदि सब लोग सिसक-सिसककर रोने लगे। वे सब लोग विषाद के कारण दीर्घकाल तक ऐसी अवस्था में पड़े रहे, मानो उनकी सारी इन्द्रियां नष्ट हो गयी हों। महाराज! वे भारी चिन्ता में डूब गये। युद्ध में उनका मन नहीं लगता था। वे पाण्डवों पर धावा न कर सके, मानो किसी महान ग्रह ने उन्हें पकड़ लिया हो। राजन! महातेजस्वी शान्तनुपुत्र भीष्म अबध्य थे, तो भी मारे गये। इससे सहसा सब लोगों ने यही अनुमान किया कि कुरुराज दुर्योधन का विनाश भी अवश्यम्भावी है। सव्यसाची अर्जुन ने हम सब लोगों पर विजय पायी। उनके तीखें बाणों से हम लोग क्षत-विक्षत हो रहे थे और हमारे प्रमुख वीर उनके हाथों मारे गये थे। उस अवस्था में हमें अपना कर्तव्य नहीं सूझता था।

परिघ के समान मोटी भुजाओं वाले शूरवीर पाण्डवों ने इहलोक में विजय पाकर परलोक में भी उत्तम गति निश्चित कर ली। वे सब के सब बड़े-बड़े शंख बजाने लगे। जनेश्वर! पाञ्चालों और सोमकों के तो हर्ष की सीमा न रही। सहस्रों रणवाद्य बजने लगे। उस समय महाबली भीमसेन जोर-जोर से ताल ठोकने और सिंह के समान दहाड़ने लगे। शक्तिशाली गगानंदन भीष्म के मारे जाने पर सब ओर दोनों सेनाओं के सब वीर अपने अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर भारी चिंतन में निमग्न हो गये। कुछ फूट-फूटकर रोने-चिल्लाने लगे, कुछ इधर-उधर भागने लगे और कुछ वीर मोह को प्राप्त (मूर्च्छित) हो गये। कुछ लोग क्षात्र धर्म की निंदा कर रहे थे और कुछ भीष्म जी की प्रशंसा कर रहे थे। ऋषियों और पितरों ने महान् व्रतधारी भीष्म की बड़ी प्रशंसा की। भरतवंश के पूर्वजनों ने भी भीष्म जी की बड़ी बड़ाई की। परम पराक्रमी एव बुद्धिमान् शांतनुनंदन भीष्म महान् उपनिषदों के सारभूत योग का आश्रय ले प्रणव का जप करते हुए उत्तरायण काल की प्रतीक्षा में बाण शय्या पर सोये रहे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के अंतर्गत भीष्मवध पर्व में भीष्म जी के रथ से गिरने से संबंध रखने वाला एक सौ उन्नीसवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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