महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 82 श्लोक 20-34

द्वयशीतितम (82) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: द्वयशीतितमो अध्याय: श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद
  • तत्पश्चात सोने के बने हुए स्वस्तिक, सिकोरे, बन्द मुँह वाले अर्धपात्र, माला, जल से भरे हुए कलश, प्रज्वलित अग्रि, अक्षत से हुए पूर्णपात्र, बिजौरा नीबू, गोरोचन, आभूषणों से विभूषित सुन्दरी कन्याएँ, दही, घी, मधु, जल मांगलिक पक्षी तथा अन्यान्य भी जो प्रशस्त वस्तुएँ हैं, उन सबको देखकर और उनमें से कुछ का स्पर्श करके कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने बाहरी ड्योढ़ी में प्रवेश किया। (20-22)
  • उस ड्योढ़ी में खड़े हुए महबाहु युधिष्ठिर के सेवकों ने उनके लिये सोने का बना हुआ एक सर्वतोभद्र नामक श्रेष्‍ठ आसन दिया, जिसमें मुक्ता और वैदूर्यमणि जड़ी हुई थी। उस पर बहुमूल्य बिछौना बिछा हुआ था। उसके ऊपर सुन्दर चादर बिछायी गयी थी। वह दिव्य एवं समृद्धिशाली सिहांसन साक्षात विश्वकर्मा का बनाया हुआ था। (23-24)
  • वहाँ बैठे हुए महात्मा राजा युधिष्ठिर को उनके सेवकों ने सब प्रकार के उज्ज्वल एवं बहुमूल्य आभूषण भेंट किये। (25)
  • महाराज! मुक्तामय आभूषणों से विभूषित वेश वाले महात्मा कुन्तीनन्दन का स्वरूप उस समय शत्रुओं का शोक बढ़ा रहा था। (26)
  • चन्द्रमा की किरणों के समान श्‍वेत तथा सुवर्णमय दण्ड वाले सुन्दर शोभाशाली अनेक चँवर डुलाये जा रहे थे। उनसे राजा युधिष्ठिर की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे बिजलियों से मेघ सुशोभित होता है। (27)
  • उस समय सूतगण स्तुति करते थे, वन्दीजन वन्दना कर रहे थे और गन्धर्वगण उनके सुयश के गीत गाते थे। इन सब से घिरे युधिष्ठिर वहाँ सिहांसन पर विराजमान थे। (28)
  • तदनन्तर दो ही घड़ी में रथों का महान शब्द गूँज उठा। रथियों रथों के पहियों की घरघराहट और घोड़ों की टापों के शब्द सुनायी देने लगे। (29)
  • हाथियों के घंटों की घनघनाहट, शंखों की ध्वनि तथा पैदल चलने वाले मनुष्‍यों के पैरों की धमक से यह पृथ्वी काँपती-सी जान पड़ती थी। (30)
  • इसी समय कानों में कुण्डल पहने, कमर में तलवार बाँधे और वृक्षःस्थल पर कवच धारण किये एक तरुण द्वारपाल ने उस ड्योढ़ी के भीतर प्रवेश करके धरती पर दोनों घुटने टेक दिये और वन्दनीय महाराज युधिष्ठिर को मस्तक नवाकर प्रणाम किया। इस प्रकार सिर से प्रणाम करके उसने धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर को यह सूचना दी कि भगवान श्रीकृष्ण पधार रहे हैं। (31-32)
  • तब पुरुष सिंह युधिष्ठिर ने द्वारपाल से कहा- 'तुम माधव को स्वागतपूर्वक ले आओ और उन्हें अर्घ्य तथा परम उत्तम आसन अर्पित करो।' (33)
  • तब द्वारपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को भीतर ले आकर एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा दिया। तत्पश्चात धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वयं ही विधिपूर्वक उनका पूजन किया। (34)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञापर्व में युधिष्ठिर के सुसज्जित होने से सम्बंध रखने वाला बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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