महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-19

द्वचशीतितम (82) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

Prev.png

महाभारत: द्रोण पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का प्रातःकाल उठकर स्नान और नित्यकर्म आदि से निवृत हो ब्राह्मणों को दान देना, वस्त्राभूषणों से विभू‍षित हो सिंहासन पर बैठना और वहाँ पधारे हुए भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करना
  • संजय कहते हैं- राजन! इधर श्रीकृष्ण और दारुक में पूर्वोक्त प्रकार से बातें हो ही रही थीं कि वह रात बीत गयी। दूसरी ओर राजा युधिष्ठिर भी जाग गये। (1)
  • उस समय हाथ से ताली देकर गीत गाने वाले तथा मांगलिक वस्तुओं को प्रस्तुत करने वाले सूत, मागध और वैतालिक जन पुरुषश्रेष्‍ठ युधिष्ठिर की स्तुति करने लगे। (2)
  • नर्तक नाचने और रागयुक्त कण्ठ वाले गायक कुरुकुल की स्तुति युक्त मधुर गीत गाने लगे। (3)
  • भारत! सुशिक्षित एवं कुशल वादक अत्यन्त हर्ष में भरकर मृदंग, झांझा, भेरी, पणव , आनक, गोमुख, आडम्बर, शंख और बड़े जोर-से बजने वाली दुन्दुभियाँ तथा दूसरे प्रकार के वाद्यों को भी बजाने लगे। (4-5)
  • वाद्यों का वह मेघ के समान गम्भीर एवं महान घोष आकाश तक फैल गया। उस ध्वनि ने सोये हुए नृपश्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिर को जगा दिया। (6)
  • बहुमूल्य एवं उत्तम शय्या पर सुखपूर्वक सोकर जगे हुए राजा युधिष्ठिर वहाँ से उठकर आवश्‍यक कार्य के लिये स्नान करने गये। (7)
  • वहाँ स्नान करके श्‍वेत वस्त्र धारण किये एक सौ आठ युवक सोने के घड़ों में जल भरकर उन्हें नहलाने के लिये उपस्थित हुए। (8)
  • उस समय एक हल्का वस्त्र पहनकर राजा युधिष्ठिर भद्रासन (चौकी) पर बैठ गये और चन्दनयुक्त मन्त्रपूत जल से स्नान करने लगे। (9)
  • सबसे पहले बलवान तथा सुशिक्षित पुरुषों ने सर्वौधि आदि द्वारा तैयार किये हुए उबटन से उनके शरीर को अच्छी तरह मला, फिर उन्होंने अधिवासित एवं सुगन्धित जल से स्नान किया। (10)
  • तत्पश्चात राजंहस के समान सफेद ढीली-ढाली पगड़ी लेकर माथे का जल सुखाने के लिये उसे मस्तक पर लपेट लिया। (11)
  • फिर वे महाबाहु युधिष्ठिर अपने सारे अंगों में हरिचन्दन का अनुलेपन करके नूतन वस्त्र और पुष्‍पमाला धारण किये हाथ जोड़े पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। (12)
  • सत्पुरुषों के मार्ग पर चलने वाले कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने जपने योग्य गायत्री मंत्र का जप किया और प्रज्वलित अग्नि से प्रकाशित अग्निशाला में विनीतभाव से प्रवेश किया। (13)
  • वहाँ पवित्री[1] सहित समिधाओं तथा मन्त्रपूत आहुतियों से अग्नि देव की पूजा करके वे उस अग्निहोत्र- गृह से बाहर निकले। (14)
  • फिर शिविर की दूसरी ड्योढ़ी पार करके पुरुषसिंह राजा युधिष्ठिर वेदवेत्ता वृद्ध ब्राह्मणशिरोमणियों को देखा। (15)
  • वे सब-के-सब जितेन्द्रिय, वेदाध्ययन के व्रत में निष्णात, यज्ञान्तस्नान से पवित्र तथा सूर्य देव के उपासक थे। वे संख्या में एक हजार आठ थे और उनके साथ एक सहस्र अनुचर थे। (16)
  • तब महाबाहु पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर अक्षत-फूल देकर उन ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया और उनमें से प्रत्येक ब्राह्मण को मधु, घी एवं श्रेष्ठ मांगलिक फलों के साथ एक-एक स्वर्णमुद्रा प्रदान की। (17)
  • इसके सिवा उन पाण्डुनन्दन ने ब्राह्मणों को सजे-सजाये सौ घोड़े, उत्तम वस्त्र, इच्छानुसार दक्षिणा और बछड़ों- सहित दूध देने वाली बहुत-सी कपिला गौएँ दीं। उन गौओं के सींगों में सोने और खुरों में चाँदी मढ़े हुए थे। उन सबको देकर युधिष्ठिर उन गौओं एवं ब्राह्मणों की परिक्रमा की। (18-19)

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुश के दो पत्तों

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः