महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 74 श्लोक 19-35

चतु:सप्‍ततितम (74) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व:चतु:सप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद
  • ‘अमित तेजस्‍वी सिंधुराज! तुम स्‍वयं भी तो तो रथियों में श्रेष्‍ठ शूरवीर हो, फिर पाण्डु के पुत्रों से अपने लिये भय क्‍यों देख रहे हो?' (19)
  • ‘मेरी ग्‍यारह [1] अक्षौहिणी सेनाएँ तुम्‍हारी रक्षा के लिये उद्यत होकर युद्ध करेंगी, अत: सिंधुराज! तुम भय मत मानो। तुम्‍हारा भय निकल जाना चाहिये।' (20)
  • संजय कहते हैं– राजन! इस प्रकार आपके पुत्र दुर्योधन के आश्वासन देने पर जयद्रथ उसके साथ रात्रि के समय द्रोणाचार्य के पास गया। (21)
  • महाराज! उस समय उसने द्रोणाचार्य के चरण छूकर विधिपूर्वक प्रणाम किया और पास बैठकर प्रणतभाव से इस प्रकार पूछा। (22)
  • ‘दूर तक बाण चलाने में, लक्ष्‍य वेधने में, हाथ की फुर्ती में तथा अचूक निशाना मारने में मुझ में और अर्जुन में कितना अन्‍तर है, यह पूज्‍य गुरुदेव मुझे बतावें।' (23)
  • ‘आचार्य! मैं अर्जुन की और अपनी विद्याविषयक विशेषता को ठी ठीक जानना चाहता हूँ। आप मुझे यथार्थ बात बताइए।' (24)
  • द्रोणाचार्य ने कहा– तात! यद्यपि तुम्‍हारा और अर्जुन का आचार्यत्‍व मैंने समान रूप से ही किया है, तथापि सम्‍पूर्ण दिव्‍यास्‍त्रों की प्राप्ति एवं अभ्‍यास और क्‍लेश सहन की दृष्टि से अर्जुन तुमसे बढ़े-चढ़े हैं। (25)
  • वत्‍स! तो भी तुम्‍हें युद्ध में किसी प्रकार भी अर्जुन से डरना नहीं चाहिये, क्‍योंकि मैं उनके भय से तुम्‍हारी रक्षा करने वाला हूँ– इसमें संशय नहीं है। मेरी भुजाएँ जिसकी रक्षा करती हों, उस पर देवताओं का भी जोर नहीं चल सकता। मैं ऐसा व्‍यूह बनाऊँगा, जिसे अर्जुन पार नहीं कर सकेंगे। (26-27)
  • इसलिये तुम डरो मत। उत्‍साहपूर्वक युद्ध करो और अपने क्षत्रिय-धर्म का पालन करो। महारथी वीर! अपने बाप-दादों के मार्ग पर चलो। (28)
  • तुमने वेदों का विधिपूर्वक अध्‍ययन करके भली-भाँति अग्निहोत्र किया है। बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान भी कर लिया है। तुम्‍हें तो मृत्यु का भय करना ही नहीं चाहिये। (29)
  • जो मन्‍दभागी मनुष्‍यों के लिये दुर्लभ है, रणक्षेत्र में मृत्युरूप उस परम सौभाग्‍य को पाकर तुम अपने बाहुबल से जीते हुए परम उत्तम दिव्‍य लोकों में पहुँच जाओगे। (30)
  • कौरव-पाण्‍डव, वृष्णिवंशी योद्धा, अन्‍य मनुष्‍य तथा पुत्रसहित मैं– ये सभी अस्थिर[2] हैं– ऐसा चिन्‍तन करो। (31)
  • बारी-बारी से हम सभी लोग बलवान काल के हाथों मारे जाकर अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ परलोक में चले जायँगे। (32)
  • तपस्वी लोग तपस्या करके जिन लोकों को पाते हैं, क्षत्रिय-धर्म का आश्रय लेने वाले वीर क्षत्रिय उन्‍हें अनायास ही प्राप्‍त कर लेते हैं। (33)
  • द्रोणाचार्य के इस प्रकार आश्वासन देने पर राजा जयद्रथ ने अर्जुन का भय छोड़ दिया और युद्ध करने का विचार किया। (34)
  • महाराज! तदनन्‍तर आपकी सेवा में भी हर्षध्‍वनि होने लगी, सिंहनाद के साथ-साथ रणवाद्यों की भयंकर ध्‍वनि गूँज उठी। (35)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में जयद्रथ को आश्वासन विषयक चौहत्‍तरववाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यद्यपि अब दुर्योधन के पास ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ नहीं रह गयी थीं; तथापि ग्यारह भागों मे विभक्त उन सेनाओं में से जो लोग शेष बचे थे, उन्हीं को लेकर यहाँ ग्यारह अक्षौहिणी का उल्लेख किया है।
  2. नाशवान

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