महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 73 श्लोक 35-53

त्रिसप्‍ततितम (73) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: त्रिसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 35-53 का हिन्दी अनुवाद
  • जो नृशंस स्‍वभाव का मनुष्‍य शरणागत, साधुपुरुष तथा आज्ञापालन में तत्‍पर रहने वाले पुरुष को त्‍यागकर उसका भरण-पोषण नहीं करता, जो उपकारी की निन्‍दा करता है, पड़ोस में रहने वाले योग्‍य व्‍यक्ति को श्राद्ध का दान नहीं देता और अयोग्‍य व्‍यक्तियों को तथा शूद्रा के स्‍वामी ब्राह्मण को देता है, जो मद्य पीने वाला, धर्म-मर्यादा को तोड़ने वाला, कृतघ्न और अग्नि की निन्‍दा करने वाला है– इन सभी लोगों को जो दुर्गति प्राप्‍त होती है, उसी को मैं भी शीघ्र ही प्राप्‍त करूँ, यदि कल जयद्रथ का वध न कर डालूँ। (35-37)
  • जो बायें हाथ से भोजन करते हैं, गोद में रखकर खाते हैं, जो पलास के आसन का और तेंदू की दातुन का त्‍याग नहीं करते तथा उष:काल में सोते हैं, उनको जो नरक लोक प्राप्‍त होते हैं (वे ही मुझे भी मिले, यदि मैं जयद्रथ को न मार डालूँ)। (38)
  • जो ब्राह्मण होकर सर्दी से और क्षत्रिय होकर युद्ध से डरते हैं, जिस गाँव में एक ही कुएँ का जल पीया जाता हो और जहाँ कभी वेदमंत्रों की ध्‍वनि न हुई हो, ऐसे स्‍थानों में जो छ: महीनों तक निवास करते हैं, जो शास्त्र की निन्दा में तत्‍पर रहते, दिन में मैथुन करते और सोते हैं, जो दूसरों के घरों में आग लगाते और दूसरों को जहर दे देते हैं, जो कभी अग्निहोत्र और अतिथि-सत्‍कार नहीं करते तथा गायों के पानी पीने में विघ्‍न डालते हैं, जो रजस्‍वला स्‍त्री का सेवन करते हैं और शुल्‍क लेकर कन्‍या देते हैं, जो बहुतों की पुरोहिती करते, ब्राह्मण होकर सेवा-वृत्ति से जीविका चलाते, मुँह में मैथुन करते अथवा दिन में स्‍त्री-सहवास करते हैं, जो ब्राह्मण को कुछ देने की प्रतिज्ञा करके फिर लोभवश नहीं देते हैं, उन सबको जिन लोकों अथवा दुर्गति की प्राप्ति होती है, उन्‍हीं को मैं भी प्राप्‍त होऊँ; य‍दि कल तक जयद्रथ को न मार डालूँ। (39-44)
  • ऊपर जिन पापियों का नाम मैंने गिनाया है तथा जिन दूसरे पापियों का नाम नहीं गिनाया है, उनको जो दुर्गति प्राप्‍त होती है, उसी को शीघ्र ही मैं भी प्राप्‍त करूँ, यदि यह रात बीतने पर कल जयद्रथ को न मार डालूँ। (45)
  • अब आप लोग पुन: मेरी यह दूसरी प्रतिज्ञा भी सुन लें। यदि इस पापी जयद्रथ के मारे जाने से पहले ही सूर्यदेव अस्‍ताचल को पहुँच जायँगे तो मैं यहीं प्रज्‍वलित अग्नि में प्रवेश कर मर जाउँगा। (46-47)
  • देवता, असुर, मनुष्‍य, पक्षी, नाग, पितर, निशाचर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, यह चराचर जगत तथा इसके परे जो कुछ है, वह– ये सब मिलकर भी मेरे शत्रु जयद्रथ की रक्षा नहीं कर सकते। (48)
  • यदि जयद्रथ पाताल में घुस जाय या उससे भी आगे बढ़ जाय अथवा आकाश, देवलोक या दैत्‍यों के नगर में जाकर छिप जाय तो भी मैं कल अपने सैकड़ों बाणों से अभिमन्‍यु के उस घोर शत्रु का सिर अवश्य काट लूँगा। (49)
  • ऐसा कहकर अर्जुन ने दाहिने और बायें हाथ से भी गाण्डीव धनुष की टंकार की। उसकी ध्‍वनि दूसरे शब्‍दों को दबाकर सम्‍पूर्ण आकाश में गूँज उठी। (50)
  • अर्जुन के इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेने पर भगवान श्रीकृष्‍ण ने भी अत्‍यन्‍त कुपित होकर पांचजन्य शंख बजाया। इधर अर्जुन ने भी देवदत्त नामक शंख को फूँका। (51)
  • भगवान श्रीकृष्‍ण के मुख की वायु से भीतरी भाग भर जाने के कारण अत्‍यन्‍त भयंकर ध्‍वनि प्रकट करने वाले पांचजन्‍य ने आकाश, पाताल, दिशा और दिक्‍पालों सहित सम्‍पूर्ण जगत को कम्पित कर दिया, मानो प्रलयकाल आ गया हो। (52)
  • महामना अर्जुन ने अब उक्‍त प्रतिज्ञा कर ली, उस समय पाण्‍डवों के शिबिर में अनेक बाजों के हजारों श‍ब्‍द और पाण्‍डव वीरों का सिंहनाद भी सब ओर गूँजने लगा। (53)
  • भीमसेन ने कहा- अर्जुन! तुम्‍हारी प्रतिज्ञा के शब्‍द से और भगवान श्रीकृष्‍ण के इस शंखनाद से मुझे विश्वास हो गया कि यह धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन अपने सगे-सम्‍बन्धियों सहित अवश्य मारा जायगा।
  • नरश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारा यह वचन महान अर्थ से युक्‍त और मुझे अत्‍यन्‍त प्रिय है। यह अत्‍यन्‍त प्रभावशाली वाक्‍य तुम्‍हारे पुत्रशोकमय उस रोष-समूह का निवारण कर रहा है, जिसने तुम्‍हारे गले के सुन्‍दर पुष्‍पहार को मसल डाला था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में अर्जुनप्रतिज्ञा विषयक तिहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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