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महाभारत: द्रोण पर्व:त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद
- धर्मराज युधिष्ठिर की कही हुई यह बात सुनकर अर्जुन व्यथा से पीड़ित हो लंबी साँस खींचते हुए ‘हा पुत्र’ कहकर पृथ्वी पर गिर पड़े। (16)
- उस समय सबके मुख पर विषाद छा गया। सब लोग अर्जुन को घेरकर दुखी हो एकटक नेत्रों से एक-दूसरे की ओर देखने लगे। (17)
- तदनन्तर इन्द्रपुत्र अर्जुन होश में आकर क्रोध से व्याकुल हो मानो ज्वर से काँप रहे हों– इस प्रकार बारंबार लंबी साँस खींचते और हाथ पर हाथ मलते हुए नेत्रों से आँसू बहाने लगे और उन्मत्त के समान देखते हुए इस तरह बोले। (18-19)
- अर्जुन ने कहा– मैं आप लोगों के सामने सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कल जयद्रथ को अवश्य मार डालूँगा। महाराज! यदि वह मारे जाने के भय से डरकर धृतराष्ट्रपुत्रों को छोड़ नहीं देगा, मेरी, पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की अथवा आपकी शरण में नहीं आ जायगा तो कल उसे अवश्य मार डालूँगा। (20-21)
- जो धृतराष्ट्र के पुत्रों का प्रिय कर रहा है, जिसने मेरे प्रति अपना सौहार्द्र भुला दिया है तथा जो बालक अभिमन्यु के वध में कारण बना है, उस पापी जयद्रथ को कल अवश्य मार डालूँगा। (22)
- राजन! युद्ध में जयद्रथ की रक्षा करते हुए जो कोई मेरे साथ युद्ध करेंगे, वे द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ही क्यों न हों, उन्हें अपने बाणों के समूह से आच्छादित कर दूँगा। (23)
- पुरुषश्रेष्ठ वीरो! यदि संग्राम भूमि में मैं ऐसा न कर सकूँ तो पुण्यात्मा पुरुषों के उन लोकों को, जो शूरवीर को प्रिय हैं, न प्राप्त करूँ। (24)
- माता-पिता की हत्या करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं, गुरु-पत्नीगामी और चुगलखोरों को जिन लोकों की प्राप्ति होती है, साधुपुरुषों की निन्दा करने वालों और दूसरों को कलंक लगाने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं, धरोहर हड़पने और विश्वासघात करने वालों को जिन लोकों की प्राप्ति होती है, दूसरे के उपभोग में आयी हुई स्त्री को ग्रहण करने वाले , पाप की बातें करने वाले, ब्रह्महत्यारे और गोघातियों को जो लोक प्राप्त होते हैं, खीर, यवान्न, साग, खिचड़ी, हलुआ, पूआ आदि को बलिवैश्वदेव किये बिना ही खाने वाले मनुष्यों को जो लोक प्राप्त होते हैं, यदि मैं कल जयद्रथ का वध न कर डालूँ तो मुझे तत्काल उन्हीं लोकों को जाना पड़े। (25-28)
- वेदों का स्वाध्याय अथवा अत्यन्त कठोर व्रत का पानल करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण की तथा बड़े-बूढ़ों, साधु पुरुषों और गुरुजनों की अवहेलना करने वाला पुरुष जिन नरकों में पड़ता है, ब्राह्मण, गौ और अग्नि को पैर से छूने वाले पुरुष की जो गति होती है तथा जल में थूक अथवा मल-मूत्र छोड़ने वालों की जो दुर्गति होती है, यदि मैं कल जयद्रथ को न मारूँ तो उसी कष्टदायिनी गति को मैं भी प्राप्त करूँ। (29-31)
- नंगे नहाने वाले तथा अतिथि को भोजन दिये बिना ही उसे असफल लौटा देने वाले पुरुष की जो गति होती है, घूसखोर, असत्यवादी तथा दूसरों के साथ वंचना (ठगी) करने वालों की जो दुर्गति होती है, आत्मा का हनन करने वाले, दूसरों पर झूठे दोषारोपण करने वाले, भृत्यों की आज्ञा के अधीन रहने वाले तथा स्त्री, पुत्र एवं आश्रित जनों के साथ यथायोग्य बँटवारा किये बिना ही अकेले मिष्ठान्न उड़ाने वाले क्षुद्र पुरुषों को जिस घोर नारकी गति की प्राप्ति होती है, यदि मैं कल जयद्रथ को न मारूँ तो मुझे भी वही दुर्गति प्राप्त हो। (32-34)
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