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महाभारत: द्रोण पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
राजा गय का चरित्र
- नारद जी कहते हैं– सृंजय! राजा अमूर्तरय के पुत्र गय की भी मृत्यु सुनी गयी है। राजा गय ने सौ वर्षों तक नियमपूर्वक अग्निहोत्र करके होमावशिष्ट अन्न का ही भोजन किया। (1)
- इससे प्रसन्न होकर अग्निदेव ने उन्हें वर देने की इच्छा प्रकट की।[1] गय ने उनसे यह वरदान माँगा– ‘मैं, तप, ब्रह्मचर्य, व्रत, नियम और गुरुजनों की कृपा से वेदों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। दूसरों को कष्ट पहुँचाये बिना अपने धर्म के अनुसार चलकर अक्षय धन पाना चाहता हूँ। ब्राह्मणों को दान देता रहूँ और इस कार्य में प्रतिदिन मेरी अधिकाधिक श्रद्धा बढ़ती रहे। अपने ही वर्ण की पतिव्रता कन्याओं से मेरा विवाह हो और उन्हीं के गर्भ से मेरे पुत्र उत्पन्न हों। अन्नदान में मेरी श्रद्धा बढ़े तथा धर्म में ही मेरा मन लगा रहे।
अग्निदेव! मेरे धर्मसम्बन्धी कार्यों में कभी कोई विघ्न न आवे’। (2-5)
- ‘ऐसा ही होगा’ यों कहकर अग्निदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। राजा गय ने वह सब कुछ पाकर धर्म से ही शत्रुओं पर विजय पायी। (6)
- राजा ने यथा समय सौ वर्षों तक बड़ी श्रद्धा के साथ दर्श, पौर्णमास, आग्रयण और चातुर्मास्य आदि नाना प्रकार के यज्ञ किये तथा उनमें प्रचुर दक्षिणा दी। (7)
- वे सौ वर्षों तक प्रतिदिन प्रात:काल उठकर एक लाख साठ हजार गौ, दस हजार अश्व तथा एक लाख स्वर्णमुद्रा दान करते थे। (8-9)
- वे सोम और अंगिरा की भाँति सम्पूर्ण नक्षत्रों में नक्षत्र दक्षिणा देते हुए नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करते थे। (10)
- राजा गय ने अश्वमेध नामक महायज्ञ में मणिमय रेतवाली सोने की पृथ्वी बनवाकर ब्राह्मणों को दान की थी। (11)
- गय के यज्ञ में सम्पूर्ण यूप जाम्बूनद नामक सुवर्ण के बने हुए थे। उन्हें रत्नों से विभूषित किया गया था। वे समृद्धिशाली यूप सम्पूर्ण प्राणियों के मन को हर लेते थे। (12)
- राजा गय ने यज्ञ करते समय हर्ष से उल्लसित हुए ब्राह्मणों तथा अन्य समस्त प्राणियों को सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न उत्तम अन्न दिया था। (13)
- समुद्र, वन, द्वीप, नदी, नद, कानन, नगर, राष्ट्र, आकाश तथा स्वर्ग में जो नाना प्रकार के प्राणिसमुदाय रहते थे, वे उस यज्ञ की सम्पत्ति से तृप्त होकर कहने लगे, राजा गये के समान दूसरे किसी का यज्ञ नहीं हुआ है। (14-15)
- यजमान गय के यज्ञ में छत्तीस योजन लम्बी, तीस योजन चौड़ी और आगे-पीछे[2] चौबीस योजन ऊँची सुवर्णमयी वेदी बनवायी गयी थी[3]। उसके ऊपर हीरे-मोती एवं मणिरत्न बिछाये गये थे। प्रचुर दक्षिणा देने वाले गय ने ब्राह्मणों को वस्त्र, आभूषण तथा अन्य शास्त्रोक्त दक्षिणाएँ दी थीं। (16-17)
- उस यज्ञ में खाने-पीने से बचे हुए अन्ने के पचीस पर्वत शेष थे। रसों को कौशलपूर्वक प्रवाहित करने वाली कितनी ही छोटी-छोटी नदियाँ तथा वस्त्र, आभूषण और सुगन्धित पदार्थों की विभिन्न राशियाँ भी उस समय शेष रह गयी थीं। (18-19)
- उस यज्ञ के प्रभाव से राजा गय तीनों लोकों में विख्यात हो गये। साथ ही पुण्य को अक्षय्य करने वाला अक्षयवट तथा पवित्र तीर्थ ब्रह्मसरोवर भी उनके कारण प्रसिद्ध हो गये। (20)
- श्वैत्य सृंजय! वे धर्म-ज्ञानादि चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरों के लिये क्या कहना है? अत: तुम यज्ञानुष्ठान और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये अनुताप न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। (21)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्व में षोडशराजकीयोपाख्यान विषयक छियासठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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