महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 55 श्लोक 37-50

पंचपंचाशत्तम (55) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: पंचपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद
  • सृंजय! अविक्षित के पुत्र राजा मरुत्त भी मर गये, ऐसा हमने सुना है। बृहस्पति जी के साथ स्‍पर्धा रखने के कारण उनके भाई संवर्त ने जिन राजर्षि मरुत्त का यज्ञ कराया था, भाँति-भाँति के यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करने की इच्‍छा होने पर जिन्‍हें साक्षात भगवान शंकर के प्रचुर धनराशि के रूप में हिमालय का एक सुवर्णमय शिखर प्रदान किया था तथा प्रतिदिन यज्ञ कार्य के अन्‍त में जिनकी सभा में इन्‍द्र आदि देवता और वृहस्‍पति आदि समस्‍त प्रजापतिगण सभासद के रूप में बैठा करते थे, जिनके यज्ञमण्‍डप की सारी सामग्रियाँ सोने की बनी हुई थीं, जिनके यहाँ उन दिनों सब प्रकार का अन्‍न, मन की इच्‍छा के अनुरूप और पवित्र रूप में उपलब्ध होता था औए सभी भोजनार्थी ब्राह्मण एवं द्विज जहाँ अपनी इच्छा के अनुसार दूध, दही, घी, मधु एवं सुन्‍दर भक्ष्‍य-भोज्‍य पदार्थ भोजन करते थे, जिनके सम्‍पूर्ण यज्ञों में प्रसन्‍नता से भरे हुए वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों को अपनी रुचि के अनुसार वस्‍त्र एवं आभूषण प्राप्‍त होते थे, जिन अविक्षितकुमार (राजर्षि मरूत्त) के घर में मरुद्गण रसोई परोसने का काम करते थे और विश्‍वेदेवगण समासद थे, जिन पराक्रमी नरेश के राज्‍य में उत्‍तम वृष्टि के कारण खेती की उपज बहुत होती थी, जिन्‍होंने उत्‍तम विधि से समर्पित किये हुए हविष्‍यों द्वारा देवताओं को तृप्‍त किया था, जो ब्रह्मचर्यपालन और वेदपाठ आदि सत्‍कर्मों द्वारा तथा सब प्रकार के दानों से सदा ऋषियों, पितरों एवं सुखजीवी देवताओं को भी संतुष्‍ट करते थे तथा जिन्‍होंने इच्‍छानुसार ब्राह्मणों को शय्या, आसन, सवारी और दुस्‍त्‍यज स्‍वर्णराशि आदि वह सारा अपरिमित धन दान कर दिया था, देवराज इन्‍द्र जिनका सदा शुभ चिन्‍तन करते थे, वे श्रद्धालु नरेश मरुत्त अपनी प्रजा को नीरोग करके अपने सत्‍कर्मों द्वारा जीते हुए पुण्‍य फलदायक अक्षय लोकों में चले गये। (37-47)
  • राजा मरुत्त ने युवावस्‍था में रहकर प्रजा, मन्‍त्री, धर्म, पत्नी, पुत्र और भाइयों के साथ एक हजार वर्षों तक राज्‍यशासन किया था। (48)
  • श्‍वैत्‍य सृंजय! धर्म, ज्ञान, वैराग्‍य तथा ऐश्‍वर्य – इन चारों बातों में राजा मरुत्त तुमसे बढ़कर थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। तुम्‍हारे पुत्र ने न तो कोई यज्ञ किया था और न उसमें कोई उदारता ही थी। अत: उसको लक्ष्‍य करके तुम चिन्‍ता न करो– नारदजी ने राजा सृंजय से यही बात कही। (49-50)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराज की योपाख्यानविषयक पचपनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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