महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 55 श्लोक 19-36

पंचपंचाशत्तम (55) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: पंचपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद
  • एक दिन राजा पर प्रसन्‍न होकर उन्‍हें पुत्र देने की इच्‍छा वाले सभी श्रेष्‍ठ ब्राह्मण, जो तपस्या और स्‍वाध्‍याय में संलग्‍न रहने वाले तथा वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान थे, एक साथ नारद जी से बोले– 'देवर्षे! आप इन राजा सृंजय को अभीष्‍ट पुत्र प्रदान कीजिये।' (19-20)
  • ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर नारद जी ने 'तथास्‍तु' कहकर उनका अनुरोध स्‍वीकार कर लिया। फिर वे सृंजय से इस प्रकार बोले– 'राजर्षे! ये ब्राह्मण लोग प्रसन्‍न होकर तुम्‍हारे लिये अभीष्ट पुत्र प्राप्‍त करना चाहते हैं। (21)
  • 'तुम्‍हारा कल्‍याण हो। तुम्‍हें जैसा पुत्र अभीष्‍ट हो, उसके लिये वर मांगो।' नारद जी के ऐसा कहने पर राजा ने हाथ जोड़कर उनसे एक सद्गुणसम्‍पन्‍न, यशस्‍वी, कीर्तिमान, तेजस्‍वी तथा शत्रुदमन पुत्र मांगा। वह बोला– 'मुने! मै ऐसे पुत्र की याचना करता हूँ, जिसका मल, मूत्र, थूक और पसीना सब कुछ आपके कृपाप्रसाद से सुवर्णमय हो जाय।' (22)
  • 'व्‍यास जी कहते हैं– राजन! तब मुनि ने कहा– ऐसा ही होगा।' उनके ऐसा कहने पर राजा को मनोवांच्छित पुत्र प्राप्‍त हुआ। मुनि के प्रसाद से वह शोभाशाली पुत्र सुवर्ण की खान निकला। राजा वैसा ही पुत्र चाहते थे। रोते समय उसके नेत्रों से सुवर्णमय आँसू गिरता था। इसीलिये उस पुत्र का नाम सुवर्णष्ठीवी प्रसिद्ध हो गया। वरदान के प्रभाव से वह अनन्‍त धनराशि की वृद्धि करने लगा। (24)
  • राजा ने घर, परकोटे, दुर्ग एवं ब्राह्मणों के निवास स्‍थान सारी अभीष्‍ट वस्‍तुएँ सोने का बनवा लीं। शय्या, आसन, सवारी, बटलाई, थाली,अन्‍य बर्तन, उस राजा का महल तथा ब्राह्य उपकरण- ये सब कुछ सुवर्णमय बन गये थे, जो समय के अनुसार बढ़ रहे थे। (25-26)
  • तदनन्‍तर लुटेरों ने राजा के वैभव की बात सुनकर तथा उन्‍हें वैसा ही सम्‍पन्‍न देखकर संगठित हो उनके यहाँ लूटपाट आरम्‍भ कर दी। (27)
  • उन डाकुओं में से कोई-कोई इस प्रकार बोले– 'हम सब लोग स्‍वयं इस राजा के पुत्र को अधिकार में कर लें; क्‍योंकि वही इस सुवर्ण की खान है। अत: हम उसी को पकड़ने का यत्‍न करें।' (28)
  • तब उन लोभी लुटेरों ने राजमहल में प्रवेश करके राजकुमार सुवर्णष्ठीवी को बलपूर्वक हर लिया। (29)
  • योग्‍य उपाय को न जानने वाले उन विवेकशून्‍य डाकुओं ने उसे वन में ले जाकर मार डाला और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके देखा, परंतु उन्‍हें थोड़ा-सा भी धन नहीं दिखायी दिया। उसके प्राणशून्‍य होते ही वह वरदायक वैभव नष्‍ट हो गया। (30-31)
  • उस समय वे विचारशून्य मूर्ख एवं दुराचारी दस्‍यु भूमण्‍डल के उस अद्भुत और असम्‍भव कुमार का वध करके परस्‍पर एक-दूसरे को मारने लगे। इस प्रकार मार-पीट करके वे भी नष्‍ट हो गये और भयंकर नरक में पड़ गये। (32)
  • मुनि के वर से प्राप्‍त हुए उस पुत्र को मारा गया देख वे महातपस्‍वी नरेश अत्‍यन्‍त दु:ख से आतुर हो नाना प्रकार से करुणाजनक विलाप करने लगे। (33)
  • पुत्र शोक से पीड़ित हुए राजा सृंजय विलाप कर रहे हैं– यह सुनकर देवर्षि नारद उनके समीप दिखाये दिये। (34)
  • युधिष्ठिर! दु:ख से पीड़ित हो अचेत होकर विलाप करते हुए राजा सृंजय के निकट आकर नारद जी ने जो कुछ कहा था, वह सुनो। (35)

(नारद जी बोले– महाराज! शोक का त्‍याग करो। बुद्धिमान नरेश! व्‍याकुलता छोड़ों! जनेश्वर! कोई कितना ही शोक क्‍यों न करे या दु:ख से मूर्च्छित क्‍यों न हो जाय, इससे मरा हुआ मनुष्‍य जीवित नहीं हो सकता।

नृपश्रेष्‍ठ! मोह त्‍याग दो! तुम्‍हारे जैसे पुरुष मोहित नहीं होते हैं। महाराज! धैर्य धारण करो! मैं तुम्‍हें ज्ञान में बढ़ा-चढ़ा मानता हूँ।)

  • सृंजय! जिसके घर में हम- जैसे ब्रह्मवादी मुनि निवास करते हैं, वह तुम भी यहाँ एक दिन भोगों से अतृप्‍त रहकर ही मर जाओगे। (36)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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