महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 54 श्लोक 43-58

चतुःपंचाशत्तम (54) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: चतुःपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 43-58 का हिन्दी अनुवाद
  • तू धर्माचरण द्वारा स्‍वयं ही अपने आपको पवित्र कर। असत्‍य का आश्रय लेने से प्राणी स्‍वयं अपने आपको पाप पंक में डूबों लेंगे। इसलिये अपने मन में आये हुए काम और क्रोध का त्‍याग करके तू समस्‍त जीवों का संहार कर। (43)
  • नारद जी कहते हैं– राजन! वह मृत्‍यु नाम वाली नारी ब्रह्मा जी के उस उपदेश से और विशेषत: उनके शाप के भय से भीत होकर उनसे बोली– 'बहुत अच्‍छा, आपकी आज्ञा स्‍वीकार है।' वही मृत्‍यु अन्‍तकाल आने पर काम और क्रोध का परित्‍याग करके अनासक्‍त भाव से समस्‍त प्राणियों के प्राणों का अपहरण करती है। (44)
  • यही प्राणियों की मृत्‍यु है, इसी से व्‍याधियों की उत्‍पति हुई है। व्‍याधि नाम है रोग का, जिससे प्राणी रूग्‍ण होता है[1]। आयु समाप्‍त होने पर सभी प्राणियों की मृत्‍यु इस प्रकार होती है। अत: राजन! तुम व्‍यर्थ शोक न करो। (45)
  • आयु के अन्‍त में सारी इन्द्रियाँ प्राणियों के साथ परलोक में जाकर स्थित होती हैं और पुन: उनके साथ ही इस लोक में लौट आती हैं। नृपश्रेष्‍ठ! इस प्रकार सभी प्राणी देवलोक में जाकर वहाँ देवस्‍वरूप में स्थित होते हैं तथा वे कर्मदेवता मनुष्‍यों की भाँति भागों की समाप्ति होने पर पुन: इस लोक में लौट आते हैं। (46)
  • भयंकर शब्द करने वाला महान बलशाली भयानक प्राणवायु प्राणियों के शरीरों का ही भेदन करता है चेतन आत्‍मा का नहीं, क्‍योंकि वह सर्वव्‍यापी, उग्र प्रभावशाली और अनन्‍त तेज से सम्‍पन्‍न है। उसका कभी आवागमन नहीं होता। (47)
  • राजसिंह! सम्‍पूर्ण देवता भी मर्त्‍य (मरणधर्मा) नाम से विभूषित हैं, इसलिये तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। तुम्‍हारा पुत्र स्‍वर्गलोक में जा पहुँचा है और नित्‍य रमणीय वीर-लोकों में रहकर आनन्‍द का अनुभव करता है। (48)
  • वह दु:ख का परित्‍याग करके पुण्‍यात्‍मा पुरुषों से जा मिला है। प्राणियों के लिये यह मृत्यु भगवान की ही दी हुई है; जो समय आने पर यथोचित रूप से (प्रजाजनों का) संहार करती है। प्रजावर्ग के प्राण लेने वाली इस मृत्‍यु को स्‍वयं ब्रह्मा जी ने ही रचा है। (49)
  • सब प्राणी स्‍वयं ही अपने आपको मरते हैं। मृत्यु हाथ में डंडा लेकर इनका वध नहीं करती है। अत: धीर पुरुष मृत्‍यु को ब्रह्माजी का रचा हुआ निश्चित विधान न समझकर मरे हुए प्राणियों के लिये कभी शोक नहीं करते हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी की बनायी हुई सारी सृष्टि को ही मृत्‍यु के वशीभूत जानकर तुम अपने पुत्र के मर जाने से प्राप्‍त होने वाले शोक का शीघ्र परित्‍याग कर दो। (50)
  • व्‍यास जी कहते हैं– युधिष्ठिर! नारद जी की कही हुई यह अर्थ भरी बात सुनकर राजा अकम्‍पन अपने मित्र नारद से इस प्रकार बोले। (51)
  • 'भगवन! मुनिश्रेष्‍ठ! आपके मुँह से यह इतिहास सुनकर मेरा शोक पूरा हो गया। मैं प्रसन्‍न और कृतार्थ हो गया हूँ और आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ।' (52)
  • राजा अकम्पन के इस प्रकार कहने पर ऋषियों में श्रेष्‍ठतम अमितात्‍मा देवर्षि नारद शीघ्र ही नन्‍दन वन को चले गये। (53)
  • जो इस इतिहास को सदा सुनता और सुनाता है, उसके लिये यह पुण्य, यश, स्‍वर्ग, धन तथा आयु प्रदान करने वाला है। (54)
  • युधिष्ठिर! उस समय महारथी महापराक्रमी राजा अकम्पन इस उत्‍तम अर्थ को प्रकाशित करने वाले वृत्तान्‍त को सुनकर तथा क्षत्रिय धर्म एवं शूरवीरों की परम गति के विषय में जानकर यथा समय स्‍वर्गलोक को प्राप्‍त हुए। (55)
  • महाधनुर्धर अभिमन्‍यु पूर्व जन्‍म में चन्द्रमा का पुत्र था, वह महारथी और समरांगण में समस्‍त धनुर्धरों के सामने शत्रुओं का वध करके खड्ग, शक्ति, गदा और धनुष द्वारा सम्‍मुख युद्ध करता हुआ मारा गया है तथा दु:खरहित हो पुन: चन्‍द्रलोक में ही चला गया है। (56-57)
  • अत: पाण्‍डुनन्‍दन! तुम भाइयों सहित उत्‍तम धैर्य धारण करके प्रसाद छोड़कर भली-भाँति कवच आदि से सुसज्जित हो पुन: शीघ्र ही युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। (58)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवधपर्व में मृत्‍यु प्रजापति संवाद विषयक चौवनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उसका स्‍वास्‍थ्‍य भंग होता है

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