महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 32 श्लोक 20-35

द्वात्रिंश (32) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद


  • कितने ही रथ टूट गये, ध्वज कट गये, छत्र पृथ्वी पर गिरा दिये गये और जूए खण्डित हो गये। उन खण्डित हुए आधे जूओं को ही लेकर घोड़े तेजी से भाग रहे थे। (20)
  • कितने ही वीरों की भुजाएँ तलवार सहित काट गिरायी गयीं, कितनों के कुण्‍डलमण्डित मस्‍तक धड़ से अलग कर दिये गये। कहीं किसी बलवान हाथी ने रथ को उठाकर फेंक दिया और वह पृथ्‍वी पर गिरकर चूर-चूर हो गया। (21)
  • किसी रथी ने नाराच के द्वारा गजराज पर आघात किया और वह धराशायी हो गया। किसी हाथी के वेगपूर्वक आघात करने पर सवार सहित घोड़ा धरती पर ढेर हो गया। इस प्रकार वहाँ मर्यादाशून्‍य अत्‍यन्‍त भयंकर एवं महान युद्ध होने लगा। (22-23)
  • उस समय सभी सैनिक 'हा तात! हा पुत्र! सखे! तुम कहाँ हो? ठहरो, कहाँ भागे जा रहे हो? मारो, लाओ, इसका वध कर डालो'–इस प्रकार की बातें कह रहे थे। हास्‍य, उछल-कूद और गर्जना के साथ उनके मुख से नाना प्रकार की बातें सुनायी देती थीं। (24)
  • मनुष्‍य, घोड़े और हाथी के रक्‍त एक-दूसरे से मिल रहे थे। उस रक्‍त प्रवाह से वहाँ की उड़ती हुई भयंकर धूल शान्‍त हो गयी। उस रक्‍तराशि को देखकर भीरु पुरुषों पर मोह छा जाता था। (25)
  • किसी वीर ने अपने चक्र के द्वारा शत्रुपक्षीय वीर के चक्र का निवारण करके युद्ध में बाण-प्रहार के योग्‍य अवसर न होने के कारण गदा से ही उसका सिर उड़ा दिया। (26)
  • कुछ लोगों में एक-दूसरे के केश पकड़कर युद्ध होने लगा। कितने ही योद्धाओं में अत्‍यन्‍त भयंकर मुक्‍कों की मार होने लगी। कितने ही शूरवीर उस निराश्रय स्‍थान में आश्रय ढूँढ़ रहे थे और नखों तथा दाँतों से एक-दूसरे को चोट पहुँचा रहे थे। (27)
  • उस युद्ध में एक शूरवीर की खड्ग सहित ऊपर उठी हुई भुजा काट डाली गयी। दूसरे की भी धनुष-बाण और अंकुश सहित बाँह खण्डित हो गयी। वहाँ एक सैनिक दूसरे को पुकारता था और दूसरा युद्ध से विमुख होकर भागा जा रहा था। (28-29)
  • किसी दूसरे वीर ने सामने आये हुए अन्‍य योद्धा के मस्‍तक को धड़ से अलग कर दिया। यह देख कोई तीसरा वीर बड़े जोर से कोलाहल करता हुआ भागा। उसके उस आर्तनाद से एक अन्‍य योद्धा अत्‍यन्‍त डर गया। (30)
  • कोई अपने ही सैनिकों को और कोई शत्रु योद्धाओं को अपने तीखे बाणों से मार रहा था। उस युद्ध में पर्वतशिखर के समान विशालकाय हाथी नाराच से मारा जाकर वर्षाकाल में नदी के तट की भाँति धरती पर गिरा और ढेर हो गया। (31)
  • झरने बहाने वाले पर्वत की भाँति किसी मदस्‍त्रावी गजराज ने सारथि और अश्वों सहित रथ को पैरों से भूमि पर दबाकर उन सबको कुचल डाला। (32)
  • अस्‍त्र-विद्या में निपुण और खून से लथ-पथ हुए शूरवीरों को परस्‍पर प्रहार करते देख बहुत-से दुर्बल हृदय वाले भीरू मनुष्‍यों के मन में मोह का संचार होने लगा। (33)
  • उस समय सेना द्वारा उड़ायी हुई धूल से व्‍याप्‍त होकर सारा जन-समूह उद्विग्न हो रहा था, किसी को कुछ नहीं सूझता था। उस युद्ध में किसी भी नियम या मर्यादा का पालन नहीं हो रहा था। (34)
  • तब सेनापति धृष्टद्युम्न ने यही उपयुक्‍त अवसर है, ऐसा कहते हुए सदा शीघ्रता करने वाले पाण्‍डवों को और भी जल्‍दी करने के लिये प्रेरित किया। (35)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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