अष्टात्रिंशदधिकशतकम (138) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
माननीय भरत नन्दन! इधर-उधर पड़े हुए सोने के अंगद, हार, कुण्डल, मुकुट, वलय, अंगूठी, चूड़ामणि, उष्णीष, सुवर्णमय सूत्र, कवच, दस्ताने, हार, निष्क, वस्त्र, छत्र, टूटे हुए चँवर, व्यजन, विदीर्ण हुए हाथी, घोड़े, मनुष्य, खून से लथपथ हुए पंख युक्त बाण आदि नाना प्रकार की छिन्न-भिन्न, पतित और फेंकी हुई वस्तुओं से वहाँ की भूमि ग्रहों से आकाश की भाँति सुशोभित हो रही थी। उन दोनों के उस अचिन्त्य, अलौकिक और अद्भुत कर्म को देखकर चारणों और सिद्धों के मन में महान विस्मय हो गया। जैसे वायु की सहायता पाकर सूखे वन में तथा घास फूस में अग्नि की गति बढ़ जाती है, उसी प्रकार उस महायुद्ध में भीमसेन के साथ सूत पुत्र कर्ण की भयंकर गति बढ़ गयी थी। नरेश्वर! जैसे दो हाथी किसी से प्रेरित होकर नरकुल के वन को रौंद डालते हैं, उसी प्रकार मेघों की घटा के समान आपकी सेना बड़ी दुरवस्था में पड़ गयी थी। उसके रथ और ध्वज गिराये जा चुके थे। हाथी, घोड़े और मनुष्य मारे गये थे। कर्ण और भीमसेन ने उस युद्ध स्थल में महान संहार मचा रखा था इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में भीम और कर्ण का युद्ध विषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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