महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 126 श्लोक 20-38

षड्विंशत्यधिकशतकम (126) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: षड्विंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद

‘इस भूतल पर कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो भीमसेन के लिये असह्य हो। ये अपने बाहुबल का आश्रय ले रणक्षेत्र में प्रयत्नशील होकर भूमण्डल के समस्त धनुर्धरों का अनायास ही सामना करने में समर्थ हैं। ‘इस महामनस्वी वीर के बाहुबल का आश्रय लेकर हम सब भाई वनवास से सकुशल लौटे हैं और युद्ध में कभी पराजित नहीं हुए हैं। ‘यहाँ से सात्यकि के पथ पर पाण्डुपुत्र भीमसेन के जाने पर युद्ध स्थल में डटे हुए सात्यकि और अर्जुन सनाथ हो जायँगे। ‘निश्चय ही सात्यकि और अर्जुन रणक्षेत्र में शोक के योग्य नहीं हैं; क्योंकि वे दोनों स्वयं तो शस्त्रविद्या में कुशल हैं ही, भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा भी पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं। ‘तथापि मुझे अपने मानसिक दुःख को निवारण करने के लिसे ऐसी व्यवस्था अवश्य करवी चाहिये। इसलिये मैं भीमसेन को सात्यकि के मार्ग का अनुगामी बनाऊँगा। ‘ऐसा करके ही मैं समझूँगा कि मैंने सात्यकि के प्रति समुचित कर्तव्य का पालन किया है।’ मन ही मन ऐसा निश्चय करके धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपने सारथि से कहा -‘मुझे भीम के पास ले चलो’।

धर्मराज की बात सुनकर अश्व संचालन में कुशल सारथि ने उनके सुवर्णभूषित रथ को भीमसेन के निकट पहुँचा दिया। भीमसेन के पास पहुँचकर राजा युधिष्ठिर समयोचित कर्त्तव्य का चिन्तन करने लगे और वहाँ बहुत कुछ कहते हुए वे मूर्च्छित से हो गये। राजन! इस प्रकार मोहाविष्ट हुए कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा -‘भीेमसेन! जिन्होंने एकमात्र रथ की सहायता से देवताओं सहित गन्धर्वों और दैत्यों पर भी विजय पायी थी, उन्हीं तुम्हारे छोटे भाई अर्जुन का आज मुझे कोई चिह्न नहीं दिखायी देता है’। तब वैसी अवस्था में पड़े हुए धर्मराज युधिष्ठिर से भीमसेन ने कहा- राजन! आपकी ऐसी घबराहट तो पहले मैंने न कभी देखी और न सुनी थी। ‘पहले जब कभी हम लोग अत्यन्त दुःख से अधीर हो उठते थे, तब आप ही हमें सहारा दिया करते थे। राजेन्द्र! उठिये, उठिये, आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ‘मानद! इस संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो मेरे लिये असाध्य हो अथवा जिसे मैं आपकी आज्ञा मिलने पर न करूँ। कुरुश्रेष्ठ! आज्ञा दीजिये। अपने मन को शोक में न डालिये’।

तब राजा युधिष्ठिर म्लान मुख हो काले सर्प के समान लंबी साँसे खींचते हुए नेत्रों में आँसू भरकर भीेमसेन से इस प्रकार बोले -‘भैया! इस समय पान्चजन्य शंख की जैसी ध्वनि सुनायी देती है और यशस्वी वासुदेव ने क्रोध में भरकर उस शंख को जिस तरह बजाया है, उससे जान पड़ता है, आज तुम्हारा भाई अर्जुन निश्चय ही मारा जाकर रणभूमि में सो रहा है। ‘उसके मारे जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ही युद्ध कर रहे हैं। जिस शक्तिशाली वीर के पराक्रम का भरोसा करके हम समस्त पाण्डव जी रहे हैं, भय के अवसरों पर हम उसी प्रकार जिसका आश्रय लेते हैं, जैसे देवता देवराज इन्द्र का, वही शूरवीर अर्जुन सिंधुराज जयद्रथ अपने वश में करने के लिये कौरव सेना में घुसा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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