महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 125 श्लोक 60-78

पंचविंशत्यधिकशतकम (125) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: पंचविंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 60-78 का हिन्दी अनुवाद

‘युद्ध करना तो क्षत्रिय का धर्म है। तप करना ही ब्राह्मण का उत्तम धर्म माना गया है। यह तपस्वी और अस्त्र विद्या का विद्वान ब्राह्मण अपने दृष्टिपात मात्र से दग्ध कर सकता है’। भारत उस युद्ध में बहुत से क्षत्रिय शिरोमणि वीर अस्त्र रूपी दाहक स्पर्श वाले द्रोणाचार्य रूपी भयंकर एवं दुष्कर अग्नि में प्रविष्ट होकर भस्म हो गये। पाञ्चाल सैनिक कहने लगे- ‘महातेजस्वी द्रोण अपने बल, उत्साह और धैर्य के अनुसार समसत प्राणियों को मोहित करते हुए हमारी सेनाओं का संहार कर रहे हैं’। उनकी यह बात सुनकर क्षत्रधर्मा युद्ध के लिये द्रोणाचार्य के सामने आकर खड़ा हो गया। उस महाबली वीर ने अर्धचन्द्राकार बाण मारकर क्रोध से उद्विग्न मन वाले द्रोणाचार्य के धनुष और बाण को काट दिया। इससे क्षत्रियों का मर्दन करने वाले द्रोणाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे और अत्यन्त वेगशाली तथा प्रकाशमाल दूसरा धनुष हाथ में लेकर उन्होंने एक तीखा बाण अपने धनुष पर रखा, जो शत्रु सेना का विनाश करने वाला था। बलवान आचार्य ने कान तक धनुष को खींचकर उस बाण को छोड़ दिया। वह बाण क्षत्रधर्मा का वध करके धरती में समा गया। क्षत्रधर्मा का हृदय विदीर्ण हो जाने के कारण रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। इस प्रकार धृष्टद्युम्न कुमार के मारे जाने पर सारी सेनाएँ भय से काँपने लगीं।।

तदनन्तर महाबली चेकितान ने द्रोणाचार्य पर चढ़ाई की। उन्होंने दस बाणों से द्रोण को घायल करके उनकी छाती में गहरी चोट पहुँचायी। साथ ही चार बाणों से उनके सारथियों को और चार ही बाणों द्वारा उनके चारों घोड़ों को भी बींध डाला। तब आचार्य ने उनकी दोनों भुजाओं और छाती में कुल तीन बाण मारे। फिर सात सायकों द्वारा उनकी ध्वजा के टुकड़े टुकड़े करके तीन बाणों से सारथि का वध कर दिया। चेकितान के सारथि के मारे ताने पर वे घोड़े उनका रथ लेकर भाग चले। आर्य! द्रोणाचार्य ने समरांगण में उनके शरीरों को बाणों से भर दिया था। जिनके घोड़े और सारथि मार दिये गये थे, चेकितान के उस रथ को देखकर तथा रणक्षेत्र में एकत्र हुए चेदि, पांचाल तथा सृंजय वीरों पर दृष्टिपात करके द्रोणाचार्य ने उन सबको चारों ओर भगा दिया। आर्य! उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जिनके काल तक के बाल पक गये थे, शरीर की कान्ति श्याम थी तथा जो पचासी ( या चार सौ ) वर्षों की अवस्था के बूढ़े थे, वे द्रोणाचार्य रण क्षेत्र में सोलह वर्ष के नवजवान की भाँति विचर रहे थे।

महाराज! रणभूमि में निर्भय से विचरते हुए शत्रु सूदन द्रोण को शत्रुओं ने वज्रधारी इन्द्र समझा। नरेश्वर! उस समय महाबाहु बुद्धिमान राजा द्रुपद ने कहा - ‘जैसे बाघ छोटे मृग को मारता है, उसी प्रकार यह व्याध-तुल्य ब्राह्मण क्षत्रियों का संहार कर रहा है। ‘दुर्बुद्धि पापी दुर्योधन अत्यन्त कष्टप्रद लोकों में जायगा, जिसके लोभ से इस समरांगण में बहुत से क्षत्रिय शिरोमणि वीर मारे गये हैं। ‘सैंकड़ों योद्धा कटकर गाय - बैलों के समान धरती पर सो रहे हैं। इन सबके शरीर खून से लथपथ हो गये हैं और ये कुत्तों तथा सियारों के भोजन बन गये हैं’। महाराज! ऐसा कहकर एक अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा द्रुपद ने रण्रक्षेत्र मे कुन्ती के पुत्रों को आगे करके तुरंत ही द्रोणाचार्य पर धावा बोल दिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में द्रोण पराक्रम विषयक एक सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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