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महाभारत: द्रोण पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 23-51 का हिन्दी अनुवाद
- उनके पराक्रम को इन्द्र अच्छी तरह जानते थे, इसलिये उन्होंने वह सब चुपचाप सह लिया। राजाओं में से किसी को भी मैंने ऐसा नहीं सुना है, जिसे श्रीकृष्ण ने जीत न लिया हो। (23)
- संजय! उस दिन मेरी सभा में कमलनयन श्रीकृष्ण के जो महान आश्चर्य प्रकट किया था, उसे इस संसार में उनके सिवा दूसरा कौन कर सकता है? (24)
- मैंने प्रसन्न होकर भक्ति भाव से भगवान श्रीकृष्ण के उस ईश्वरीय रूप का जो दर्शन किया, वह सब मुझे आज भी अच्छी तरह स्मरण है। मैंने उन्हें प्रत्यक्ष की भाँति जान लिया था। (25)
- संजय! बुद्धि और पराक्रम से युक्त भगवान हृषीकेश के कर्मों का अन्त नहीं जाना जा सकता। (26)
- यदि गद, साम्ब, प्रद्युम्न, विदूरथ, अगावह, अनिरुद्ध, चारूदेष्ण, सारण, उल्मुक, निशठ, झिल्ली, पराक्रमी बभ्रु, पृथु, विपृथु, शमीक तथा अरिमेजय- ये तथा दूसरे भी बलवान एवं प्रहार कुशल वृष्णिवंशी योध्दा वृष्णिवंश के प्रमुख वीर महात्मा केशव के बुलाने पर पाण्डव सेना में आ जायँ और समरभूमि में खड़े हो जायँ तो हमारा सारा उद्योग संशय मे पड़ जाय; ऐसा मेरा विश्वास है। (27-30)
- वनमाला और हल धारण करने वाले वीर बलराम कैलास-शिखर के समान गौरवर्ण हैं। उनमें दस हजार हाथियों का बल है। वे भी उसी पक्ष में रहेंगे, जहाँ श्रीकृष्ण हैं। (31)
- संजय! जिन भगवान वासुदेव को द्विजगण सबका पिता बताते हैं, क्या वे पाण्डवों के लिये स्वयं युद्ध करेंगे? (32)
- तात! संजय! जब पाण्डवों के लिये श्रीकृष्ण कवच बाँधकर युद्ध के लिये तैयार हो जायँ, उस समय वहाँ कोई भी योद्धा उनका सामना करने को तैयार न होगा। (33)
- यदि सब कौरव पाण्डवों को जीत लें तो वृष्णिवंशभूषण भगवान श्रीकृष्ण उनके हित के लिये अवश्य उत्तम शस्त्र ग्रहण कर लेंगे। (34)
- उस दशा में पुरुषसिंह महाबाहु श्रीकृष्ण सब राजाओं तथा कौरवों को रणभूमि में मारकर सारी पृथ्वी कुन्ती को दे देंगे। (35)
- जिसके सारथि सम्पूर्ण इन्द्रियों के नियन्ता श्रीकृष्ण तथा योद्धा अर्जुन हैं, रणभूमि में उस रथ का सामना करने वाला दूसरा कौन रथ होगा? (36)
- किसी भी उपाय से कौरवों की जय होती नहीं दिखायी देती। इसलिये तुम मुझसे सब समाचार कहो। वह युद्ध किस प्रकार हुआ? (37)
- अर्जुन श्रीकृष्ण के आत्मा हैं और श्रीकृष्ण किरीटधारी अर्जुन को आत्मा हैं। अर्जुन में विजय नित्य विद्यमान है और श्रीकृष्ण में कीर्ति का सनातन निवास है। (38)
- अर्जुन सम्पूर्ण लोकों में कभी कहीं भी पराजित नहीं हुए हैं। श्रीकृष्ण में असंख्य गुण हैं। यहाँ प्राय: प्रधान गुण के नाम लिये गये हैं। (39)
- दुर्योधन मोहवश सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान केशव को नहीं जानता है, यह दैव योग से मोहित हो मौत के फंदे में फँस गया। (40)
- यह दशार्ह कुल भूषण श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुन को नहीं जानता हैं, वे दोनों पूर्व देवता महात्मा नर और नारायण हैं। (41)
- उनकी आत्मा तो एक है; परंतु इस भूतल के मुनष्यों को वे शरीर से दो होकर दिखायी देते हैं। उन्हें मन से भी पराजित नहीं किया जा सकता। वे यशस्वी श्रीकृष्ण और अर्जुन यदि इच्छा करे तो मेरी सेना को तत्काल नष्ट कर सकते हैं; परंतु मानव भाव का अनुसरण करने के कारण ये वैसी इच्छा नहीं करते हैं। (42)
- तात! भीष्म तथा महात्मा द्रोण का वध युग के उलट जाने की- सी बात है। सम्पूर्ण लोकों को यह घटना मानो मोह में डालने वाली है। (43)
- जान पड़ता है, कोई भी न तो ब्रह्मचर्य के पालन से, न वेदों के स्वाध्याय से, न कर्मों के अनुष्ठान से और न अस्त्रों के प्रयोग से ही अपने को मृत्यु से बचा सकता है। (44)
- संजय! लोक सम्मानित, अस्त्र विधा के ज्ञाता तथा युद्ध दुर्मद वीरवर भीष्म और द्रोणाचार्य के मारे जाने का समाचार सुनकर मैं किस लिये जीवित रहूँ? (45)
- पूर्वकाल में राजा युधिष्ठिर के पास जिस प्रसिद्ध राजलक्ष्मी को देखकर हम लोग उनसे डाह करने लगे थे, आज भीष्म और द्रोणाचार्य के वध से हम उसके कटु फल का अनुभव कर रहें हैं। (46)
- सूत! मेरे ही कारण यह कौरवों का विनाश प्राप्त हुआ है। जो काल से परिपक्व हो गये हैं, उनके वध के लिये तिनके भी वज्र का काम करते हैं। (47)
- युधिष्ठिर इस संसार में अनन्त ऐश्वर्य के भागी हुए हैं। जिनके कोप से महात्मा भीष्म और द्रोण मार गिराये गये। (48)
- युधिष्ठिर को धर्म का स्वाभाविक फल प्राप्त हुआ हैं, किंतु मेरे पुत्रों को उसका फल नहीं मिल रहा है। सबका विनाश करने के लिये प्राप्त हुआ यह क्रूर काल बीत नहीं रहा है। (49)
- तात! मनस्वी पुरुषों द्वारा अन्य प्रकार से सोचे हुए कार्य भी दैवयोग से कुछ और ही प्रकार के हो जाते हैं; ऐसा मेरा अनुभव है। (50)
- अत: इस अनिवाय अपार दुश्चिन्त्य एवं महान संकट के प्राप्त होने पर जो घटना जिस प्रकार हुई हो, वह मुझे बताओ। (51)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेक पर्व में धृतराष्ट्र विलाप विषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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