सप्तदशाधिकशततम (117) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: सप्तदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद
महाराज! उस समय सात्यकि ने लोकोत्तर सारथ्य कर्म कर दिखाया। वे द्रोणाचार्य से युद्ध भी करते रहे और स्वयं ही घोड़ों की बागडोर भी संभाले रहे। प्रजानाथ! उस युद्धस्थल में महारथी सात्यकि ने हर्ष में भरकर विप्रवर द्रोणाचार्य को सौ बाणों से घायल कर दिया। भारत! फिर द्रोणाचार्य ने सात्यकि पर पांच बाण चलाये। वे भयंकर बाण उस रणक्षेत्र में सात्यकि का कवच फाड़कर उनका लोहू पीने लगे। उन भयंकर बाणों से क्षत-विक्षत होकर वीर सात्यकि को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सुवर्णमय रथ वाले द्रोणाचार्य पर बाणों की झड़ी लगा दी। एक बाण से युयुधान ने द्रोणाचार्य के सारथि को धरती पर गिरा दिया और सारथिहीन घोड़ों को अपने बाणों से इधर-उधर मार भगाया। राजन! वह चांदी का बना हुआ रथ[1] युद्ध स्थल में दौड़ लगाता हुआ हजारों चक्कर काटता रहा। उस समय उसकी अंशुमाली सूर्य के समान शोभा हो रही थी। उस समय समस्त राजा और राजकुमार पुकार पुकारकर कहने लगे-‘अरे! दौड़ो! द्रोणाचार्य के घोड़ों को पकड़ो’। नरेश्वर! उस युद्धस्थल में वे सभी महारथी शीघ्र ही सात्यकि का सामना छोड़कर जहाँ द्रोणाचार्य थे, वही सहसा भाग गये। सात्यकि के बाणों से पीड़ित हो उन सबको युद्ध स्थल से पलायन करते देख आपकी संगठित हुई सारी सेना पुन: भाग खड़ी हुई। द्रोणाचार्य पुन: व्यूह के ही द्वार पर जाकर खड़े हो गये। सात्यकि के बाणों से पीड़ित होकर वायु के समान वेग से भागने वाले उनके घोड़ों ने ही उन्हें वहा पहुँचा दिया। पराक्रमी द्रोण ने अपने व्यूह को पाण्डवों और पांचालों द्वारा भंग हुआ देख सात्यकि को रोकने का प्रयत्न छोड़ दिया। वे पुन: व्यूह की ही रक्षा करने लगे। क्रोधरुपी ईधन से प्रज्वलित हुई द्रोणरुपी अग्नि पाण्डवों और पांचालों को रोककर सबको दग्ध करती हुई सी खड़ी हो गयी और प्रलय काल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होने लगी। इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में सात्यकि का कौरव सेना में प्रवेश तथा पराक्रमी विषयक एक सौ सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अट्ठाईस श्लोक में द्रोण के रथ को सोने का बताया है और इसमें चाँदी का बताया है। इससे यह समझना चाहिए कि बस रथ में सोना और चाँदी दोनों ही धातुएँ लगी हुई थीं।
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