द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 58-79 का हिन्दी अनुवाद
जैसे मातलि इन्द्र का सारथि और सखा भी है, उसी प्रकार दारुक का छोटा भाई सात्यकि का सारथि और प्रिय सखा था। उसने सात्यकि को वह सूचना दी कि रथ जोतकर तैयार है। तदनन्तर सात्यकि ने स्नान करके पवित्र हो यात्रा कालिक मंगलकृत्य सम्पन्न करने के पश्चात एक सहस्र स्त्रात को सोने की मुद्राएं दान की। ब्राह्मणों के आशीर्वाद पाकर तेजस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ एवं मधुषर्क के अधिकारी सात्यकि ने कैलातक नामक मधु का पान किया। उसे पीते ही उनकी आंखें लाल हो गयीं। मद से नेत्र चञ्चल हो उठे, फिर उन्होंने अत्यन्त हर्ष में भरकर वीर कांस्य पात्र का स्पर्श किया। उस समय प्रज्वलित अग्नि के समान रथियों में श्रेष्ठ सात्यकि का तेज दूना हो गया। उन्होंने बाण सहित धनुष को गोद में लेकर ब्राह्मणों के मुख से स्वस्ति वाचन का कार्य सम्पन्न कराकर कवच एवं आभूषण धारण किये, फिर कुमारी कन्याओं ने लावा, गन्ध तथा पुष्पमालाओं से उनका पूजन एंव अभिनन्दन किया। इसके बाद सात्यकि ने हाथ जोड़कर युधिष्ठिर के चरणों में प्रणाम किया और युधिष्ठिर ने उनका मस्तक सूघां। फिर वे उस विशाल रथ पर आरुढ़ हो गये। तदनन्तर वे हष्ट-पुष्ट वायु के समान वेगशाली एवं अजेय सिंधु देशीय घोड़े मदमत हो उस विजयशील रथ को लेकर चल दिये। इस प्रकार धर्मराज को सम्मानित भीमसेन भी युधिष्ठिर को प्रणाम करके सात्यकि के साथ चले। उन दोनों शत्रुदमन वीरों को आपकी सेना में प्रवेश करने के लिये इच्छुक देख द्रोणाचार्य आदि आपके सारे सैनिक सावधान होकर खड़े हो गये।। उस समय भीमसेन को कवच आदि से सुसज्जित होकर अपने पीछे आते देख उनका अभिनन्दन करके वीर सात्यकि उनसे यह हर्ष वर्धक वचन कहा- 'भीमसेन! तुम राजा युधिष्ठिर की रक्षा करो। यही तुम्हारे लिये सबसे महान कर्म है। जिस काल ने रांधकर पका दिया है, इस कौरव सेना को चीरकर मैं भीतर प्रवेश कर जाऊँगा।। 'शत्रुदमन वीर! इस समय और भविष्य में भी राजा की रक्षा करना ही श्रेयस्कर है। तुम मेरा बल जानते हो और मैं तुम्हारा! अत: भीमसेन! यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो लौट जाओ। सात्यकि के ऐसा कहने पर भीमसेन ने उनसे कहा- 'अच्छा भैया! तुम कार्य सिद्धि के लिये आगे बढ़ों। पुरुषवर! मैं राजा की रक्षा करुंगा। भीमसेन के ऐसा कहने पर सात्यकि ने उनसे कहा- 'कुन्तीकुमार! तुम जाओ। निश्चय ही लौट जाओ। मेरी विजय अवश्य होगी। 'भीमसेन! तुम जो मेरे गुणों में अनुरक्त होकर मेरे वेश में हो गये हो तथा इस समय दिखायी देने वाले शुभ शकुन मुझे जैसी बात बता रहे हैं, इससे जान पड़ता है कि महात्मा अर्जुन के द्वारा पापी जयद्रथ के मारे जाने पर मैं निश्चय ही लौटकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर का आलिंग्न करुंगा। भीमसेन से ऐसा कहकर उन्हें विदा करने के पश्चात महायशस्वी सात्यकि ने आपकी सेना की ओर उसी प्रकार देखा, जैसे बाघ मृगों के झुंड की ओर देखता है। नरेश्वर! सात्यकि को अपने भीतर प्रवेश करने के लिये उत्सुक देख आपकी सेना पर पुन: मोह छा गया और वह बारंबार कांपने लगी। राजन्! तदनन्तर धर्मराज की आज्ञा के अनुसार अर्जुन से मिलने के लिये सात्यकि आपकी सेना की ओर वेग पूर्वक बढ़े।। इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथपर्व में सात्यकि का कौरव सेना में प्रवेशविषयक एक सौ बांरहवा अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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