महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 106 श्लोक 25-47

षडधिकशततम (106) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: षडधिकशततम अध्याय: श्लोक 25-47 का हिन्दी अनुवाद

राजेन्‍द्र! कुछ लोग ऐसा समझते थे कि युधिष्ठिर पराजित होकर भाग गये। कुछ लोगों की यही धारणा थी कि महामनस्‍वी ब्राह्मण द्रोणाचार्य के हाथ से राजा युधिष्ठिर मार डाले गये। इस प्रकार भारी संकट में पड़े हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने यद्ध द्रोणाचार्य के द्वारा काट दिये गये उस धनुष को त्‍याग कर दूसरा प्रकाशमान एवं अत्‍यन्‍त वेगशाली दिव्‍य धनुष धारण किया। तदनन्‍तर वीर युधिष्ठिर ने समरागंण में द्रोणाचार्य के चलाये हुए सहस्‍त्रों बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वह अद्भुत-सी बात हुई। राजन! उस समरागड़ण में क्रोध से लाल आंखें किये युधिष्ठिर ने द्रोण के उन बाणों को काटकर एक शक्ति हाथ में ली, जो पर्वतों को भी विदीर्ण कर देने वाली थीं। वह अत्‍यन्‍त घोर शक्ति मन में भय उत्‍पन्‍न करने वाली थी। भारत! उसे चलाकर हर्ष में भरे हुए बलवान युधिष्ठिर ने बड़े जोर से सिंहनाद किया। उन्‍होंने उस सिंहनाद से सम्‍पूर्ण भूतों में भय सा उत्‍पन्‍न कर दिया। युद्ध स्‍थल में धर्मराज के द्वारा उठायी हुई उस शक्ति को देखकर समस्‍त प्राणी सहसा बोल उठे-‘द्रोणाचार्य स्‍वस्ति (द्रोणाचार्य का कल्‍याण हो )'। केंचुल से छूटे हुए सर्प के समान राजा की भुजाओं से मुक्‍त हुई वह शक्ति आकाश दिशाओं तथा विदिशाओं (कोणों) को प्रकाशित करती हुई जलते मुखवाली नागिन के समान द्रोणाचार्य के निकट जा पहुँची। प्रजानाथ! तब सहसा आती हुई उस शक्ति को देखकर अस्त्र वेताओं में श्रेष्‍ठ द्रोण ने ब्रह्मास्त्र प्रकट किया। वह अस्त्र भयंकर दीखने वाली उस शक्ति को भस्‍म करके तुरंत ही यशस्‍वी युधिष्ठिर के रथ की ओर चला।

माननीय नरेश! तब महाप्रज्ञ राजा युधिष्ठिर ने द्रोण द्वारा चलाये गये उस ब्रह्मास्त्र को ब्रह्मास्त्र द्वारा ही शान्‍त कर दिया। इसके बाद झुकी हुई गांठवाले पांच बाणों द्वारा रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य को घायल करके तीखे क्षुरप्र से उनके विशाल धनुष काट दिया। आर्य! क्षत्रिय मर्दन द्रोण ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर सहसा धर्म पुत्र युधिष्ठिर पर गदा चलायी। शत्रुओं को संताप देनेवाले नेरश! उस गदा को सहसा अपने ऊपर आती देख क्रोध में भरे हुए युधिष्ठिर ने भी गदा ही उठा ली और द्रोणाचार्य पर चला दी। एकबारगी छोड़ी हुई वे दोनों गदाएं एक दूसरी से टकराकर संघर्ष से आग की चिनगारियां छोड़ती हुई पृथ्‍वी पर गिर पड़ीं। माननीय नरेश! तब द्रोणाचार्य अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे और उन्‍होंने सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए चार तीखे एवं उत्‍तम बाणों द्वारा धर्मराज के चारों घोड़ों को मार डाला। फिर एक भल्‍ल चलाकर उनका धनुष काट दिया।

एक भल्‍ले से इन्‍द्र ध्‍वज के समान उनकी ध्‍वजा खण्डित कर दी और तीन बाणों से पाण्‍डु पुत्र युधिष्ठिर को भी पीड़ा पहुँचायी। भरतश्रेष्‍ठ! जिसके घोड़े मारे गये थे, उस रथ से तुरंत ही कूदकर राजा युधिष्ठिर बिना आयुध के हाथ ऊपर उठाये धरती पर खड़े हो गये। प्रभो! उन्‍हें रथ और विशेषत: आयुध से रहित देख द्रोणाचार्य ने शत्रुओं तथा उनकी सम्‍पूर्ण सेनाओं को मोहित कर दिया। दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले द्रोण के हाथ बड़ी फुर्ती से चलते थे। जैसे प्रचण्‍ड सिंह किसी मृग का पीछा करता हो, उसी प्रकार वे तीखे बाण समूहों की वर्षा करते हुए राजा युधिष्ठिर की ओर दौड़े। शत्रुनाशक द्रोणाचार्य के द्वारा युधिष्ठिर का पीछा होता देख पाण्‍डवदल में सहसा हाहाकार मच गया। भारत! माननीय नरेश! पाण्‍डुसेना में यह महान कोलाहल होने लगा कि ‘राजा मारे गये, राजा मारे गये’। तदनन्‍तर कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर तुरंत ही सहदेव के रथ पर आरुढ़ हो अपने वेगशाली घोड़ों द्वारा वहाँ से हट गये

इस प्रकार श्री महाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवध पर्व में युधिष्ठिर का पलायन विषयक एक सौ छठा अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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