पंचनवत्यधिकशततम (195) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: पंचनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद
भरतश्रेष्ठ! अब मैं ऐसा प्रयत्न करूंगा, जिससे परलोक में गये हुए पिता के ऋण से मुक्त हो संकू। यद्यपि श्रेष्ठ पुरुष को कभी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, तथापि अपने पिता के वध को न सह सकने के कारण आज मैं यहाँ अपने पुरुषार्थ का वर्णन कर रहा हूँ। आज मैं सारी सेनाओं को रौंदता हुआ प्रलयकाल का दृश्य उपस्थित करूंगा। अत: आज श्रीकृष्ण सहित समस्त पाण्डव मेरा पराक्रम देखें। आज रणभूमि में रथ पर बैठे हुए मुझ अश्वत्थामा को न देवता, न गन्धर्व, न असुर, न राक्षस और न कोई श्रेष्ठ मानव वीर ही परास्त कर सकते हैं। इस संसार में मुझसे या अर्जुन से बढ़कर दूसरा कोई अस्त्रवेत्ता कहीं नहीं है। आज मैं शत्रु की सेना में घुसकर प्रकाशमान अंशुधारियों के बीच अंशुमाली सूर्य के समान तपता हुआ देवनिर्मित अस्त्रों का प्रयोग करूंगा। आज महासमर में धनुष से मेरे द्वारा छोड़े हुए बाण मेरा महान पराक्रम दिखाते हुए पाण्डव योद्धाओं को मथ डालेंगे। राजन! जैसे बरसती हुई जलधाराओं से सम्पूर्ण दिशाएं ढक जाती हैं, उसी प्रकार आज सब लोग मेरे तीखे बाणों से सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित हुई देखेंगे। जैसे आंधी वृक्षों को गिरा देती है, उसी प्रकार मैं सब ओर बाण समूहों की वर्षा करके भयंकर गर्जना करने वाले शत्रुओं को मार गिराउंगा।
प्रभो! यह नहीं जाना जा सकता कि यह अस्त्र किसको नहीं मारेगा। यह अवध्य का भी वध कर सकता है, अत: सहसा इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोण! युद्धभूमि में रथ छोड़कर उतर जाना, अपने अस्त्र-शस्त्र रख देना, अभय की याचना करना और शत्रु की शरण लेना- ये इस महान अस्त्र को शांत करने के उपाय हैं। जो रणभूमि में इस अस्त्र के द्वारा अवध्य मनुष्यों को पीड़ा देता है, वह स्वयं भी सब प्रकार से पीड़ित हो सकता है। तदनन्दर मेरे पिता ने वह अस्त्र ग्रहण किया और उन पूज्य पिता ने मुझे उसका उपदेश किया। (पिता को अस्त्र देते समय भगवान ने यह भी कहा था) ब्राह्मन! तुम संग्राम में इस अस्त्र के द्वारा सम्पूर्ण शस्त्र-वर्षाओं को बारंबार नष्ट करोगे और स्वयं भी तेज से प्रकाशित होते रहोगे। ऐसा कहकर भगवान नारायण अपने दिव्य धाम को चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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