महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 184 श्लोक 23-43

चतुरशीत्यधिकशततम (184) अध्याय: द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-43 का हिन्दी अनुवाद

कुछ शूरवीर निद्रान्ध होकर भी रणभूमि में विचरते थे और उस दारुण अन्धकार में शत्रुपक्ष के शूरवीरों का वध कर डालते थे। बहुत से मनुष्य निद्रा से अत्यन्त मोहित हो जाने के कारण शत्रुओं की ओर से समरभूमि में अपने को जो मारने की चेष्टा होती थी, उसे समझ ही नहीं पाते थे उनकी ऐसी अवस्था जानकर पुरुषप्रवर अर्जुन ने सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए उच्च स्वर से इस प्रकार कहा- 'सैनिको! तुम सब लोग अपने वाहनों सहित थक गये हो और नींद से अन्धे हो रहे हो। इधर यह सारी सेना घोर अन्धकार और बहुत सी धूल से ढक गयी है। अतः यदि तुम ठीक समझो तो युद्ध बंद कर दो और दो घड़ी तक इस रणभूमि में ही सो लो। 'तत्पश्चात चन्द्रोदय होने पर विश्राम करने के अनन्तर निद्रारहित हो तुम समस्त कौरव-पाण्डव योद्धा परस्पर पूर्ववत संग्राम आरम्भ कर देना'।

प्रजानाथ! धर्मात्मा अर्जुन का यह वचन समस्त धर्मज्ञों को ठीक लगा। सारी सेनाओं ने उसे पसंद किया और सब लोग परस्पर यही बात कहने लगे। कौरव सैनिक 'हे कर्ण! हे राजा दुर्योधन! ' इस प्रकार पुकारते हुए उच्चस्वर से बोले- 'आप लोग युद्ध बंद कर दें, क्योंकि पाण्डव सेना युद्ध से विरत हो गयी है'। भारत! जब अर्जुन ने सब ओर इधर-उधर उच्चस्वर से पूर्वोक्त प्रस्ताव उपस्थित किया, तब पाण्डवों की तथा आपकी सेना भी युद्ध से निवृत्त हो गयी। महात्मा अर्जुन के इस श्रेष्ठ वचन का सम्पूर्ण देवताओं, ऋषियों और समस्त सैनिकों ने बड़े हर्ष के साथ स्वागत किया। भरतवंशी नरेश! भरत कुलभूषण! अर्जुन के उस क्रूरता शून्य वचन का आदर करके थकी हुई सारी सेनाएँ दो घड़ी तक सोती रहीं। भारत! आपकी सेना विश्राम का अवसर पाकर सुख का अनुभव करने लगी। उसने वीर अर्जुन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा- 'महाबाहु निष्पाप अर्जुन! तुम में वेद तथा अस्त्रों का ज्ञान है। तुम में बुद्धि और पराक्रम है तथा तुम में धर्म एवं सम्पूर्ण भूतों के प्रति दया है। 'कुन्तीनन्दन! हम लोग तुम्हारी प्रेरणा से सुस्ताकर सुखी हुए हैं, इसलिये तुम्हारा कल्याण चाहते हैं। तुम्हे सुख प्राप्त हो। वीर! तुम शीघ्र ही अपने मन को प्रिय लगने वाले पदार्थ प्राप्त करो'।

प्रजानाथ! इस प्रकार आपके महारथी नरश्रेष्ठ अर्जुन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए निद्रा के वशीभूत हो मौन हो गये।। कुछ लोग घोड़ों की पीठों पर, दूसरे रथों की बैठकों में, कुछ अन्य योद्धा हाथियों पर तथा दूसरे बहुत से सैनिक पृथ्वी पर ही सो रहे। कुछ लोग सभी प्रकार के आयुध लिये हुए थे। किन्हीं के हाथों में गदाएँ थीं। कुछ लोग तलवार और फरसे लिये हुए थे तथा दूसरे बहुत से मनुष्य प्राप्त और कवच से सुशोभित थे। वे सभी अलग-अलग सो रहे थे। नींद से अंधे हुए हाथी सर्पों के समान धूल में सनी हुई सूँड़ों से लंबी-लंबी साँसें छोड़कर इस वसुधा को शीतल करने लगे। धरती पर सोकर निःश्वास खींचते हुए गजराज ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानों पर्वत बिखरे पड़े हों और उनमें रहने वाले बड़े-बड़े सर्प लंबी साँसें छोड़ रहे हों। सोने की बागडोर में बँधे हुए घोड़े अपने गर्दन के बालों पर रथ के जूए लिये टापों से खोद-खोदकर समतल भूमि कों भी विषम बना रहे थे। राजेन्द्र! वे रथों में जुते हुए ही चारों ओर सो गये। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार घोड़े, हाथी और सैनिक भारी थकावट से युक्त होने के कारण युद्ध से विरत हो सो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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