महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 142 श्लोक 54-72

द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततमो अध्याय: श्लोक 54-72 का हिन्दी अनुवाद

‘वह अत्यन्त दुष्कर कर्म करके परिश्रम से चूर-चूर हो पृथ्वी पर गिर गया है। अर्जुन! वीर सात्यकि तुम्हारा ही शिष्य है। उसकी रक्षा करो। पुरुषसिंह अर्जुन! प्रभो! यह श्रेष्ठ वीर तुम्हारे लिये यज्ञशील भूरिश्रवा के अधीन न हो जाय, ऐसा शीघ्र प्रयत्न करो। तब अर्जुन ने प्रसन्नचित्त होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- भगवन! देखिये, जैसे कोई सिंहों का यूथपति वन में मतवाले महान गज के साथ क्रीड़ा कर, उसी प्रकार कुरुकुल शिरोमणि भूरिश्रवा वृष्णिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि के साथ रणक्रीड़ा कर रहे हैं।

संजय कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन अर्जुन इस प्रकार कह ही रहे थे कि सैनिकों में महान हाहाकार मच गया। महाबाहु भूरिश्रवा ने सात्यकि को उठाकर धरती पर पटक दिया। जैसे सिंह किसी मतवाले हाथी को खींचता है, उसी प्रकार प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवा युद्ध स्थल में सात्वत वंश के प्रमुख वीर सात्यकि को घसीटते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। तदनन्तर भूरिश्रवा ने रणभूमि में तलवार को म्यान से बाहर निकाल कर सात्यकि की चुटिया पकड़ ली और उनकी छाती में लात मारी। फिर उसने उनके कुण्डलमण्डित मस्तक को धड़ से अलग कर देने का उद्योग आरम्भ किया। उस समय सात्यकि भी बड़ी शीघ्रता के साथ अपने मस्तक को घुमाने लगे। भारत! जैसे कुम्हार छेद में डंडा डालकर अपनी चाक को घुमाता है, उसी प्रकार केश पकड़े हुए भूरिश्रवा के बांह के साथ ही सात्यकि अपने सिर को घुमाने लगे।

राजन! इस प्रकार युद्धभूमि में केश खींचे जाने के कारण सात्यकि को कष्ट पाते देख भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से पुनः इस प्रकार बोले- महाबाहो! देखो, वृष्णि और अन्धकवंश का वह सिंह भूरिश्रवा के वश में पड़ गया है। यह तुम्हारा शिष्य है और धनुर्विद्या में तुमसे कम नहीं है। पार्थ! पराक्रम मिथ्या है, जिसका आश्रय लेने पर भी वृष्णि वंशी सत्यपराक्रमी सात्यकि से रणभूमि में भूरिश्रवा बढ़ गये है। भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर पाण्डुपुत्र महाबाहु अर्जुन ने मन ही मन युद्धस्थल में भूरिश्रवा की प्रशंसा की।। कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले भूरिश्रवा इस युद्धस्थल में सात्वत कुल के श्रेष्ठ वीर सात्यकि को घसीटते हुए खेल सा कर रहे हैं और बारंबार मेरा हर्ष बढ़ा रहे हैं। जैसे सिंहवन में किसी महान गजराज को खींचता है, उसी प्रकार ये भूरिश्रवा वृष्णिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि को खींच रहे हैं, उसे मार नहीं रहे हैं। राजन! इस प्रकार मन ही मन उस कुरुवंशी वीर की प्रशंसा करके महाबाहु कुन्तीकुमार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- प्रभो! मेरी दृष्टि सिन्धुराज जयद्रथ पर लगी हुई थी। इसलिये मैं सात्यकि को नहीं देख रहा था; परंतु अब मैं इस यदुवंशी वीर की रक्षा के लिये यह दुष्कर कर्म करता हूं’।

ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करते हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन ने गाण्डीव धनुष पर एक तीखा क्षुरप्र रखा। अर्जुन की भुजाओं से छोड़े गये उस क्षुरप्र ने आकाश से गिरी हुई बहुत बड़ी उल्का के समान उन यज्ञशील भूरिश्रवा के बाजूबंद विभूषित (दाहिनी) भुजा को खग सहित काट गिराया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में भूरिश्रवा की भुजाका उच्छेद विषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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