महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 96 श्लोक 21-41

षष्णवतितम (96) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: षष्णवतितम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद

जिस नराधम ने जूए में जीती हुई द्रौपदी का उपहास किया था, आज पृथ्वी पर सूतपुत्र कर्ण का रक्त पी रही है। महाबाहो! आपका वह शत्रु रणभूमि में सो रहा है और उसके सारे शरीर में बाण भरे हुए हैं। नरव्याघ्र! अनेक बाणों से क्षत-विक्षत हुए उस कर्ण को आप देखिये। महाबाहो! आप सावधान होकर हम सब लोगों के साथ इस निष्कंटक हुई पृथ्वी का शासन और प्रचुर भागों का उपभोग कीजिये।

राजन! महात्मा श्रीकृष्ण ने जब युधिष्ठिर को कर्ण के वध के बारे में बताया तो यह सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से वार्तालाप आरम्भ किया। राजेन्द्र! अहो भाग्य! अहो भाग्य! ऐसा कहकर युधिष्ठिर इस प्रकार बोले- महाबाहु देवकीनन्दन! आपके रहते यह महान कार्य सम्पन्न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आप-जैसे सारथि होते ही पार्थ ने प्रयत्नपूर्वक उसका वध किया है। महाबाहो! आपकी बुद्धि के प्रसाद से ऐसा होना आश्चर्य नहीं हैं। कुरुश्रेष्ठ! इसके बाद धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने बाजूबंद विभूषित श्रीकृष्ण का दाहिना हाथ अपने हाथ में लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों से कहा-प्रभो! देवर्षि नारद ने मुझसे कहा था कि आप दोनों धर्मात्मा, महात्मा, पुराणपुरुष तथा ऋषिप्रवर साक्षात भगवान नर और नारायण हैं। महाभाग! परम बुद्धिमान तत्त्ववेत्ता महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन ने भी बारंबार मुझसे यही बात कही है।

श्रीकृष्ण! आपके प्रसाद से ही ये पाण्डुपुत्र धनंजय सदा सामने रहकर युद्ध में शत्रुओं पर विजयी हुए हैं और कभी युद्ध से मुँह नही मोड़ सके हैं। प्रभो! जब आप युद्ध में अर्जुन के सारथि बने थे, तभी हमें यह विश्वास हो गया था कि हम लोगों की विजय निश्चित है, अटल है। हमारी पराजय नहीं हो सकती। गोविन्द! भीष्म, द्रोण, कर्ण, महात्मा गौतमवंशी कृपाचार्य तथा इनके पीछे चलने वाले जो और भी बहुत-से शूरवीर हैं और रहे हैं, आपकी बुद्धि से आज कर्ण के मारे जाने पर उन सबका वध हो गया, ऐसा मैं मानता हूँ। ऐसा कहकर पुरुषसिंह महाबाहु धर्मराज युधिष्ठिर श्वेत वर्ण और काली पूँछ वाले, मन के समान वेगशाली घोड़ों से जुते हुए सुवर्णभूषित रथ पर आरूढ़ हो अपनी सेना के साथ युद्ध देखने के लिये चले।

श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों वीरों के साथ प्रिय विषय पर परार्मश और उनसे वार्तालाप करते हुए युधिष्ठिर ने रणभूमि में सोये हुए पुरुषप्रवर कर्ण को देखा। जैसे कदम्ब का फूल सब ओर से केसरों से भरा होता है, उसी प्रकार कर्ण का शरीर सैकड़ो बाणों से व्याप्त था। धर्मराज युधिष्ठिर ने इसी अवस्था में उसे देखा। उस समय सुगन्धित तेल से भरे हुए सहस्रों सोने के दीपक जलाकर प्रकाश किया गया था। उसी उजाले में वे धर्मात्मा कर्ण को देख रहे थे। उसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया था और सारा शरीर बाणों से विदीर्ण हो चुका था। उस अवस्था में पुत्रसहित मरे हुए कर्ण को देखकर बारंबार उसका निरीक्षण करके राजा युधिष्ठिर को इस बात पर पूरा-पूरा विश्वास हुआ। फिर वे पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कहा- गोविन्द! आप जैसे विद्वान और वीर स्वामी एवं संरक्षक के द्वारा सुरक्षित होकर आज में भाईयों सहित इस भूमण्डल का राजा हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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