त्रिषष्टितम (63) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद
तब शल्य ने हंसकर युधिष्ठिर के वध का दृढ़ निश्चय किये अत्यन्त क्रोध में भरकर रथ पर बैठे हुए कर्ण से पुन: इस प्रकार कहा ‘राधापुत्र! दुर्योधन ने जिनसे जूझने के लिये तुम्हारा सदा सम्मान किया है, उन कुन्तीकुमार अर्जुन को मारो। युधिष्ठिर का वध करने से तुम्हें क्या मिलेगा। ‘इनके मारे जाने पर अर्जुन निश्चय ही हमारे सारे महारथियों को जीत लेंगे। परंतु अर्जुन के मारे जाने पर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की विजय अवश्यम्भावी है। ‘महाबाहो! अर्जुन का यह सूर्य के समान प्रकाशमान ध्वज दिखायी देता है। तुम इन्हीं को मारो, युधिष्ठिर का वध करने से तुम्हारा क्या लाभ है। ‘श्रीकृष्ण और अर्जुन शंख बजा रहे हैं, जिनका यह महान शब्द सुनायी पड़ता है। वर्षाकाल के मेघ की गर्जना के समान उनके धनुष का यह गम्भीर घोष कानों में पड़ रहा है। ‘कर्ण! ये अर्जुन अपने बाणों की वर्षा से बड़े-बड़े रथियों का संहार करते हुए हमारी सारी सेना को काल का ग्रास बना रहे हैं। युद्धस्थल में इनकी ओर तो देखो। ‘शूरवीर अर्जुन के पृष्ठभाग की रक्षा युधामन्यु और उत्तमौजा कर रहे हैं। शौर्यसम्पन्न सात्यकि उनके उत्तर (बायें) चक्र की रक्षा करते हैं और धृष्टद्युम्न दाहिने चक्र की। ‘भीमसेन राजा दुर्योधन के साथ युद्ध करते हैं। राधा नन्दन! हम सब लोगों के देखते-देखते आज भीमसेन जिस प्रकार उसे मार न डालें, वैसा प्रयत्न करो। जैसे भी सम्भव हो, हमारे राजा को भीमसेन से छूटकारा ही चाहिये। ‘देखो, युद्ध में शोभा पाने वाले दुर्योधन को भीमसेन ने ग्रस लिया है। यदि तुम्हें पाकर वह संकट से छूट जाय तो यह महान आश्चर्य की घटना होगी। ‘तुम चलकर जीवन के भारी संशय में पड़े हुए राजा दुर्योधन को बचाओ। आज माद्रीकुमार नकुल-सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर का वध करके क्या होगा। पृथ्वीनाथ! शल्य की यह बात सुनकर तथा महासमर में दुर्योधन को भीमसेन से ग्रस्त हुआ देखकर शल्य के वचनों से प्रेरित हो राजा को अधिक चाहने वाला पराक्रमी कर्ण अजात शत्रु युधिष्ठिर और माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव को छोड़कर आपके पुत्र की रक्षा करने के लिये दौड़ा। माननीय नरेश! मद्रराज शल्य के द्वारा हांके हुए घोड़े ऐसे भाग रहे थे, मानो आकाश में उड़ रहे हों। कर्ण के चले जाने पर कुन्तीकुमार पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर और सहदेव तीव्रगामी घोड़ों द्वारा वहाँ से भाग गये। नकुल और सहदेव के साथ वे नरेश लज्जित होते हुए से तुरंत छावनी में पहुँचकर रथ से उतर पड़े और सुन्दर शय्या पर लेट गये। उस समय उनका सारा शरीर बाणों से क्षत विक्षत हो रहा था। वहाँ उनके शरीर से बाण निकाल दिये गये तो भी हृदय में जो अपमान का कांटा गड़ गया था, उससे वे अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। उस समय राजा दोनों भाई माद्रीकुमार महारथी नकुल-सहदेव से इस प्रकार बोले। युधिष्ठिर ने कहा- वीर पाण्डुकुमारों! तुम दोनों शीघ्रतापूर्वक जहाँ भीमसेन खड़े हैं, वहाँ उनकी सेना में जाओ। वहाँ भीमसेन मेघ के समान गम्भीर गर्जना करते हुए युद्ध कर रहे हैं। तदनन्तर दूसरे रथ पर बैठकर रथियों में श्रेष्ठ नकुल और तेजस्वी सहदेव वे दोनों शत्रुसूदन बन्धु तीव्र वेगवाले घोड़ों द्वारा भीमसेन के पास जा पहुँचे। फिर वे दोनों बलवान भाई भीमसेन के सैनिकों के साथ खड़े होकर युद्ध करने लगे। इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में युधिष्ठिर का पलायन विषयक तिरसठवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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