महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 52 श्लोक 22-42

द्विपंचाशत्तम (52) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद

बाणों और तोमरों द्वारा ताड़ित होकर कितने ही अश्व धरती पर लोट जाते और हाथियों द्वारा खींचे जाने पर छटपटाते हुए नाना प्रकार के भाव व्यक्त करते थे। आर्य! वहाँ घायल होकर पृथ्वी पर पड़े हुए कितने ही मनुष्य अपने बान्धव-जनों को देखकर कराह उठते थे। कितने ही अपने बाप दादों को देखकर कुछ अस्फुट स्वर में बोलने लगते थे। भरतनन्दन! दूसरे बहुत से मनुष्य अन्यान्य लोगों को दौड़ते देख एक दूसरे से अपने प्रसिद्ध नाम और गौत्र बताने लगते थे। महाराज मनुष्यों की कटी हुई सहस्रों सुवर्णभूषित भुजाएं कभी टेढ़ी होकर किसी शरीर से लिपट जाती, कभी छटपटातीं, गिरतीं, ऊपर को उछलतीं, नीचे आ जातीं और तड़पने लगती थीं। प्रजानाथ! सर्पों के शरीरों के समान प्रतीत होने वाली कितनी ही चन्दनचर्चित भुजाएं रणभूमि में पांच मुंह वाले सर्पों के समान महान वेग प्रकट करतीं तथा रक्तरंजित होने के कारण सुवर्णमयी ध्वंजाओं के समान अधिकाधिक शोभा पाती थीं। उस घोर घमासान युद्ध के चालू होने पर सम्पूर्ण योद्धा एक दूसरे पर चोट करते हुए बिना जाने पहचाने ही युद्ध करते थे। राजन! शस्त्रों की धारावाहिक वृष्टि से व्याप्त! तथा धरती की धूल से आच्छादित हुए उस प्रदेश में अपने और शत्रुपक्ष के सैनिक अन्धकार से आच्छादित होने के कारण पहचान में नहीं आते थे। वह युद्ध ऐसा घोर एवं भयानक हो रहा था कि वहाँ बारंबार खून की बड़ी-बड़ी नदियां बह चलती थीं। योद्धाओं के कटे हुए मस्तक शिलाखण्डों के समान उन नदियों को आच्छादित किये रहते थे।

उनके केश ही सेवा और घास के समान प्रतीत होते थे, हड्डियां ही उनमें मछलियों के समान व्याप्त हो रही थीं, धनुष, बाण और गदाएं नौका के समान जान पड़ती थीं। उनके भीतर मांस और रक्त की ही कीचड़ जमी थी। रक्त के प्रवाह को बढ़ाने वाली उन घोर एवं भयंकर नदियों को वहाँ योद्धाओं ने प्रवाहित किया था। वे भयानक रुप वाली नदियां कायरों को डराने और शूर वीरों का हर्ष बढ़ाने वाली थीं तथा प्राणियों को यमलोक पहुँचाती थीं। जो उनमें प्रवेश करते, उन्हें वे डुबो देती थीं और क्षत्रियों के मन में भय उत्पन्न करती थी। नरव्याघ्र! वहाँ गरजते हुए मांसभक्षी जन्तुओं के शब्द वह युद्धस्थल प्रेतराज की नगरी के समान भयानक जान पड़ता था। वहाँ चारों ओर उठे हुए अगणित कबन्ध और रक्त मांस से तृप्त हुए भूतगण नृत्य़ कर रहे थे। भारत! ये सब के सब रक्त तथा वसा पीकर छके हुए थे। मेदा, वसा, मज्जा और मांस से तृप्त एवं मतवाले कौए, गीध और बक सब ओर उड़ते दिखायी देते थे। राजन! उस समर में योद्धाओं के व्रत का पालन करने में विख्यात शूरवीर जिसका त्याग करना अत्यन्त कठिन है, उस भय को छोड़कर निर्भय के समान पराक्रम प्रकट करते थे। बाण और शक्तियों से व्याप्त तथा मांसभक्षी जन्तुओं से भरे हुए उस रणक्षेत्र में शूरवीर अपने पुरुषार्थ की ख्याति बढ़ाते हुए विचर रहे थे। भारत! प्रभो! रणभूमि में कितने ही योद्धा एक दूसरे को अपने और पिता के नाम तथा गोत्र सुनाते थे। प्रजानाथ! नाम और गोत्र सुनाते हुए बहुतेरे योद्धा शक्ति, तोमर और पट्टिशों द्वारा एक दूसरे को धूल में मिला रहे थे। इस प्रकार वह दारुण एवं भयंकर युद्ध चल ही रहा था कि समुद्र में टूटी हुई नौका के समान कौरव-सेना छिन्न-भिन्न हो गयी और विषाद करने लगी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्धविषयक बावनवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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