महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 46 श्लोक 11-30

षट्चत्वारिंश (45) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 11-30 का हिन्दी अनुवाद

नरेश्वर! शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, वेगशाली मागध वीर और सात्वतवंशी कृतवर्मा- ये व्यूह के दाहिने पक्ष का आश्रय लेकर खड़े थे। महारथी शकुनि और उलूक चमचमाते हुए प्रासों से सुशोभित घुड़सवारों के साथ उनके प्रपक्ष में स्थित हो आपके व्यूह की रक्षा कर रहे थे। उनके साथ कभी घबराहट में पड़ने वाले गान्धार देशीय सैनिक और दुर्जय पर्वतीय वीर भी थे। पिशाचों के समान उन योद्धाओं की ओर देखना कठिन हो रहा था और वे टिड्डी दलों के समान यूथ बनाकर चलते थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन को मार डालने की इच्छावाले युद्ध निपुण संशप्तक योद्धा युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले रथी वीर थे। उनकी संख्या चौंतीस हजार थी। वे आपके पुत्रों के साथ रहकर व्यूह वाम पाशर्व की रक्षा करते थे। उनके प्रपक्ष स्थान में सूतपुत्र की आज्ञा से रथों, घुड़सवारों और पैदलों सहित काम्बोज, शक तथा यवन महाबली श्रीकृष्ण और अर्जुन को ललकारते हुए खड़े थे।

कर्ण भी विचित्र कवच, अंगद और हार धारण करके सेना के मुख भाग की रक्षा करता हुआ व्यूह के मुहाने पर ठीक बीच-बीच में खड़ा था। सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी और शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ महाबाहु कर्ण रोष और जोश में भरकर सेनापति की रक्षा में तत्पर हुए आपके पुत्रों के साथ प्रमुख भाग में स्थित हो कौरव सेना को अपने साथ खींचता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था, वह शत्रुओं के सामने डटा हुआ था। व्यूह के पृष्ठ भाग में पिगंल नेत्रों वाला प्रियदर्शन दु:शासन सेनाओं से घिरा हुआ खड़ा था। वह एक विशाल गजराज की पीठ पर विराजमान था। महाराज! विचित्र अस्त्र और कवच धारण करने वाले सहोदर भाइयों तथा एक साथ आये हुए मद्र और केकय देश के महापराक्रमी योद्धाओं द्वारा सुरक्षित साक्षात राजा दुर्योधन दु:शासन के पीछे-पीछे चल रहा था। महाराज! उस समय देवताओं से घिरे हुए देवराज इन्द्र के समान उसकी शोभा हो रही थी। अश्वत्थामा, कौरव पक्ष के प्रमुख महारथी वीर, शौर्य सम्पन्न म्लेच्छ सैनिकों से युक्त नित्य मतवाले हाथी वर्षा करने वाले मेघों के समान मद की धारा बहाते हुए उस रथ सेना के पीछे-पीछे चल रहे थे। वे हाथी ध्वजों, वैजयन्ती- पताकाओं, प्रकाशमान अस्त्र-शस्त्रों तथा सवारों से सुशोभित हो वृक्ष समूहों से युक्त पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे। पट्टिश और खड्ग धारण किये तथा युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले सहस्रों शूर सैनिक उन पैदलों एवं हाथियों के पादरक्षक थे। अधिकाधिक सुसज्जित हाथियों, रथों और घुड़सवारों से सम्पन्न वह व्यूहराज देवताओं और असुरों की सेना के समान सुशोभित हो रहा था। विद्वान सेनापति कर्ण के द्वारा बृहस्पति की बतायी हुई रीति के अनुसार भली-भाँति रचा गया वह महान व्यू्ह शत्रुओं के मन में भय उत्पन्न करता हुआ नृत्य सा कर रहा था। उसके पक्ष और प्रपक्षों से युद्ध के इच्छुक पैदल, घुड़सवार, रथी और गजारोही योद्धा उसी प्रकार निकल पड़ते थे, जैसे वर्षाकाल में मेघ प्रकट होते हैं।

तदनन्तर सेना के मुहाने पर कर्ण को खड़ा देख राजा युधिष्ठिर ने शत्रुओं का संहार करने वाले अद्वितीय वीर धनंजय से इस प्रकार कहा ‘अर्जुन! रणभूमि में कर्ण द्वारा रचित उस महाव्यूह को देखो। पक्षों और प्रपक्षों से युक्त शत्रु की वह व्यूहबद्ध सेना कैसी प्रकाशित हो रही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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