महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 35 श्लोक 43-48

पंचत्रिंश (35) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: पंचत्रिंश अध्याय: श्लोक 43-48 का हिन्दी अनुवाद

परंतु मैं हित की इच्छा रखते हुए कर्ण से जो भी प्रिय अथवा अप्रिय वचन कहूँ, वह सब तुम और कर्ण सर्वथा क्षमा करो। कर्ण ने कहा- मद्रराज! जैसे ब्रह्मा महादेव जी के और श्रीकृष्ण अर्जुन के हित में सदा तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार आप भी निरन्तर हमारे हितसाधन में संलग्न रहें। शल्य बोले- अपनी निन्दा और प्रशंसा, परायी निन्दा और परायी स्तुति- ये चार प्रकार के बर्ताव श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी नहीं किये हैं। परंतु विद्वान! मैं तुम्‍हें विश्वास दिलाने के लिये जो अपनी प्रशंसा भरी बात कहता हूँ, उसे तुम यथार्थ रूप से सुनो। प्रभो! मैं सावधानी, अश्वसंचालन, ज्ञान, विद्या तथा चिकित्सा आदि सद्गुणों की दृष्टि से इन्द्र के सारथि-कर्म में नियुक्त मातलि के समान समान सुयोग्य हूँ। निष्पाप सूतपुत्र कर्ण! जब तुम युद्ध स्थल में अर्जुन के साथ युद्ध करोगे, तब मैं तुम्हारे घोड़े अवश्य हाँकूँगा। तुम निश्चिन्त रहो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में शल्य के सारथि कर्म को स्वीकार करने से सम्बन्ध रखने वाला पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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