महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 32 श्लोक 21-39

द्वात्रिंश (32) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद

‘पहले युद्ध में अर्जुन इस प्रकार शत्रुओं का वध नहीं करते थे। इस समय श्रीकृष्ण के साथ होने से ही इनका पराक्रम बढ़ गया है। ‘मद्रराज! श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन प्रतिदिन हमारी विशाल सेना को युद्ध भूमि में खदेड़ते देखे जा सकते हैं। ‘महातेजस्वी नरेश! अतः आप कर्ण के साथ रहकर शत्रुसेना के उस भाग को एक साथ ही नष्ट कर दीजिये। ‘जैसे अरुण के साथ सूर्य अन्धकार का नाश करते हैं, उसी प्रकार आप महासमर में कर्ण के साथ रहकर कुन्ती कुमार अर्जुन का वध कीजिये। ‘प्रातःकालीन सूर्य के तुल्य तेजस्वी कर्ण और शल्य को उदित होते हुए दो सूर्यों के समान रणभूमि में देखकर शत्रुसेना के महारथी भाग जाएँ। ‘मान्यवर! जैसे सूर्य और अरुण को देखते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आप दोनों को देखकर कुन्ती के पुत्र, पांचाल और सृंजय नष्ट हो जायँ। ‘कर्ण रथियों में श्रेष्ठ है और आप सारथियों में शिरोमणि हैं। संसार में आप दोनों का संयोग जो आज बन गया है, न तो कभी हुआ था और न आगे कभी होगा। ‘जैसे श्रीकृष्ण सभी अवस्थाओं में पाण्डुपुत्र अर्जुन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप रणभूमि में वैकर्तन कर्ण की रक्षा करें। ‘युद्धस्थल में युद्ध करते समय कर्ण के सारथि का कार्य सँभालिये। राजन! आपके सारथि होने से यह कर्ण रणभूमि में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी अजेय हो जायगा, फिर पाण्डवों की तो बात ही क्या है। आप मेरे इस कथन में संदेह न कीजिये'।

संजय कहते हैं- राजन! जब दुर्योधन ने शल्य से कर्ण का सारथि बनने के लिए प्रार्थना की, तो यह सुनकर शल्य को बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी भौंहों को तीन जगह से टेढ़ी करके बारंबार हाथ हिलाने लगे। महाबाहु शल्य को अपने कुल, ऐश्वर्य, शास्त्र ज्ञान और बल का बड़ा अभिमान था। वे क्रोध से लाल हुए विशाल नेत्रों को घुमाकर इस प्रकार बोले। शल्य ने कहा- गान्धारीपुत्र! तुम मेरा अपमान कर रहे हो, निश्चय ही तुम्हारे मन में मेरे प्रति संदेह है, तभी तुम निर्भय होकर कह रहे हो कि आप 'सारथि का कार्य कीजिये'। तुम कर्ण को मुझसे श्रेष्ठ मानकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हो; परंतु युद्धस्थल में राधापुत्र कर्ण को मैं अपने समान नहीं गिनता हूँ। राजन! तुम शत्रुसेना के अधिक-से-अधिक भाग को मेरे हिस्से में दे दो, मैं उसे जीतकर जैसे आया हूँ, वैसे लौट जाऊँगा। अथवा कुरुनन्दन! आज मैं अकेला ही युद्ध करूँगा। तुम संग्राम में शत्रुओं को दग्ध करते हुए मेरे पराक्रम को देख लेना। कौरव्य! मेरे जैसा पुरुष अपने मन में कुछ कामनाएँ रखकर युद्ध में प्रवृत्त नहीं होता है। अतः तुम मुझ पर संदेह न करो। तुम्हें युद्ध में किसी प्रकार मेरा अपमान नहीं करना चाहिये। तुम मेरी मोटी और वज्र के समान गँठीली इन सुदृढ़ भुजाओं का तो देखो। मेरे इस विचित्र धनुष और विषधर सर्प के समान इन विषैले बाणों की ओर तो दृष्टिपात करो। गान्धारीकुमार! वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों से जुते हुए मेरे इस सजे-सजाये रथ और सुवर्णपत्र से मढ़ी हुई गदा पर भी दृष्टि डालो। राजन! मैं सारी पृथ्वी को विदीर्ण कर सकता हूँ, पर्वतों को तोड़-फोड़कर बिखेर सकता हूँ और अपने तेज से समुद्रों को भी सूखा सकता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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