महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 11 श्लोक 21-43

एकादश (11) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद

व्यूह के पुच्छ भाग में महा पराक्रमी दोनों भाई राजा चित्र और चित्रसेन अपनी विशाल सेना के साथ उपस्थित हुए। राजेन्द्र! मनुष्यों में श्रेष्ठ कर्ण के इस प्रकार यात्रा करने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर देखकर इस प्रकार कहा- ‘वीर पार्थ! देखो, इस समय युद्धस्थल में धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना कैसी स्थिति में है? कर्ण ने वीर महारथियों द्वारा इसे किस प्रकार सुरक्षित कर दिया है? ‘महाबाहो! कौरवों की इस विशाल सेना के प्रमुख वीर तो मारे जा चुके हैं। अब इसके तुच्छ सैनिक ही शेष रह गये हैं। इस समय तो यह मुझे तिनकों के समान जान पड़ती है। ‘इस सेना में एकमात्र महाधनुर्धर सूत पुत्र कर्ण विराजमान हैं, जो रथियों में श्रेष्ठ है तथा जिसे देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर, बड़े-बड़े नाग एवं चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों के उसी कर्ण को मारकर तुम्हारी विजय होगी और मेरे हृदय में बारह वर्षों से जो सेल कसक रहा है, वह निकल जायेगा। महाबाहो! ऐसा जानकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसे व्यूह की रचना करो’।

भाई की यह बात सुनकर श्वेत वाहन पाण्डु पुत्र अर्जुन ने इस कौरव सेना के मुकाबले में अपनी सेना के अर्द्ध चन्द्राकार व्यूह की रचना की। उस व्यूह के वाम पार्श्व में भीमसेन और दाहिने पार्श्व में महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न खड़े हुए। उसके मध्य भाग में राजा युधिष्ठिर और पाण्डु पुत्र धनंजय खड़े थे। धर्मराज के पृष्ठ भाग में नकुल और सहदेव थे। पाञ्चाल महारथी युधामन्यु और उत्तमौजा अर्जुन के चक्र रक्षक थे। किरीटधारी अर्जुन से सुरक्षित होकर उन दोनों ने युद्ध में कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। भारत! शेष वीर नरेश कवच धारण करके व्यूह के विभिन्न भागों में अपने उत्साह और प्रयत्न के अनुसार खड़े हुए थे।

भरतनन्दन! इस प्रकार इस महाव्यूह की रचना करके पाण्डवों तथा आपके महाधनुर्धरों ने युद्ध में ही मन लगाया। युद्ध स्थल में सूत पुत्र कर्ण के द्वारा व्यूह रचना पूर्वक खड़ी की गयी आपकी सेना को देखकर भाइयों सहित दुर्योधन ने यह मान लिया कि ‘अब तो पाण्डव मारे गये’। उसी प्रकार पाण्डव सेना का व्यूह देखकर राजा युधिष्ठिर ने भी कर्ण सहित आपके सभी पुत्रों को मारा गया ही समझ लिया। राजन! तदनन्तर दोनों सेनाओं में चारों ओर महान शब्द करने वाले शंख, भेरी, पणव, आनक, दुन्दुभि और झाँझ आदि बाजे बज उठे। नगाड़े पीटे जाने लगे। साथ ही विजय की अभिलाषा रखने वाले शूरवीरों का सिंहनाद भी होने लगा। जनेश्वर! घोड़ों के हींसने, हाथियों के चिग्घाड़ने तथा रथ के पहियों के घरघराने के भयंकर शब्द प्रकट होने लगे। भारत! व्यूह के मुख्य द्वार पर कवच धारण किये महाधनुर्धर कर्ण को खड़ा देख कोई भी सैनिक द्रोणाचार्य के मारे जाने के दुःख का अनुभव न कर सका। महाराज! वे दोनों सेनाएँ हर्षोत्फुल्ल मनुष्यों से भरी थीं। राजन्! वे बलपूर्वक परस्पर चोट करने और जूझने की इच्छा से मैदान में आकर खड़ी हो गयीं। राजेन्द्र! वहाँ रोष में भरकर सावधानी के साथ खड़े हुए कर्ण और पाण्डव अपनी-अपनी सेना में विचरने लगे। वे दोनों सेनाएँ परस्पर नृत्य करती हुई सी भिड़ गयीं। युद्ध की अभिलाषा रखने वाले वीर उन दोनों व्यूहों के पक्ष और प्रपक्ष से निकलने लगे। महाराज! तदनन्तर एक दूसरे पर आघात करने वाले मनुष्य, हाथी, घोडों और रथों का वह महान युद्ध आरम्भ हो गया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में व्यूह निर्माण विषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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