महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
26.धृतराष्ट की चिन्ता
विदुर धृतराष्ट्र के साथ यों बातें कर रहे थे कि नारद मुनि भी उधर आ निकले। उन्होंने धृतराष्ट्र को और बातों के साथ यह बताया कि दुर्योधन के पाप-कर्म के कारण आज से ठीक चौदह वर्ष के बाद सारे कौरवों का नाश हो जायेगा। यह भविष्यवाणी सुनाकर देवर्षि नारद जिस प्रकार एकाएक आये थे वैसे ही चले गये। दुर्योधन और उनके साथी नारद की भविष्यवाणी सुन भयभीत हो गये। वे आचार्य द्रोण के पास गये और उनके आगे गिड़गिड़ाते हुए बोले- "आचार्य, सारा राज्य आप ही का है। हम आप ही की शरण में हैं। आप हमारा साथ न छोड़ें।"
लेकिन द्रोणाचार्य की बात दुर्योधन क्यों मानने लगा। "राजन, आजकल आप दु:खी क्यों रहते हैं?" संजय ने राजा धृतराष्ट्र से पूछा। पांडवों से वैर मोल ले लेने पर मैं निश्चिन्त रह ही कैसे सकता हूं?" अंधे राजा ने उत्तर दिया। संजय बोला- "आप सच कह रहे हैं। जिसका नाश होना निश्चित हो, उसकी बुद्धि फिर जाती है। वह भले को बुरा और बुरे को भला समझने लग जाता है। प्रारब्ध लाठी लेकर किसी का सिर थोड़े ही फोड़ता है। जिसे दण्ड देना होता है उसका विवेक हर लेता है, जिससे भलाई के भ्रम में वह बुराई कर बैठता है और अपने आप ही नाश के गड्ढे में गिर जाता है। आपके बेटों की यही बात है। उन्होंने द्रौपदी का अपमान किया और अपने ही हाथों अपने सर्वनाश का गड्ढा खोद लिया।"
विदुर की बुद्धिमता का धृतराष्ट्र पर भारी प्रभाव था, इसलिए शुरू-शुरू में वह विदुर की बातें सुन लिया करते थे। परन्तु बार-बार विदुर की ऐसी ही बातें सुनते-सुनते वह ऊब उठे। एक दिन विदुर ने फिर वही बात छेड़ी तो धृतराष्ट्र झुंझलाकर बोले- "विदुर! तुम हमेशा पांडवों की तरफदारी करके मेरे लड़कों के विरुद्ध बातें किया करते हो। मालूम होता है कि तुम हमारा भला नहीं चाहते, नहीं तो बार-बार कैसे कहते कि मैं दुर्योधन का साथ छोड़ दूं। दुर्योधन मेरे कलेजे का टुकड़ा है, कैसे उसे ठुकरा दूं? ऐसी सलाह देने से क्या फायदा हो सकता है जो न न्यायोचित है, न मनुष्य-स्वभाव के अनुकूल ही? तुम से मेरा विश्वास उठ गया है। मुझे अब तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं। अगर चाहो तो तुम भी पांडवों के पास चले जाओ।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज