महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
22.शकुनि का प्रवेश
शकुनि दुर्योधन को सांत्वना देता हुआ बोला- "बेटा दुर्योधन! इस तरह मन छोटा क्यों करते हो। आखिर पांडव तुम्हारे भाई ही तो हैं! उनके सौभाग्य पर तुम्हें जलन न होनी चाहिए। न्यायपूर्वक जो राज्य उनको प्राप्त हुआ, उसी का तो उपभोग वे कर रहे हैं। उनके भाग्य अच्छे हैं, इसी से उनको यह ऐश्वर्य और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। पांडवों ने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं। जिस पर उनका अधिकार था वही उन्हें मिला है। अपनी शक्ति से प्रयत्न करके यदि उन्होंने अपना राज्य तथा सत्ता बढ़ा ली है तो तुम जी छोटा क्यों करते हो? और फिर पांडवों की शक्ति और सौभाग्य से तुम्हारा बिगड़ता क्या है? तुम्हें कमी किस बात की है? तुम्हारे भाई-बन्द तुम्हारा कहा मानते हैं। द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा तथा कर्ण जैसे महावीर तुम्हारे पक्ष में हैं। यही नहीं, बल्कि मैं, भीष्म, कृपाचार्य, जयद्रथ, सोमदत्त हम सब तुम्हारे साथ हैं। इन साथियों की सहायता से तुम सारे संसार पर विजय पा सकते हो। फिर दु:ख क्यों करते हो?" यह सुन दुर्योधन बोला- "जब ऐसी बात है, तो मामा जी, हम इन्द्रप्रस्थ पर चढ़ाई ही क्यों न कर दें? क्यों न पांडवों को वहाँ से मार भगावें?" "युद्ध की तो बात ही न करो। वह खतरनाक काम है। तुम पांडवों पर विजय पाना चाहते हो तो युद्ध के बजाय चतुराई से काम लो। मैं तुमको ऐसा उपाय बता सकता हूँ कि जिससे बगैर लड़ाई के ही युधिष्ठिर पर सहज में विजय पाई जा सके।" शकुनि ने कहा। दुर्योधन की आंखें आशा से चमक उठीं। बड़ी उत्सुकता के साथ पूछा, "मामा जी! आप सच कह रहे हैं? बगैर लड़ाई के पांडवों को जीता जा सकता है? आप ऐसा उपाय जानते हैं?" शकुनि ने कहा- "दुर्योधन, युधिष्ठिर को चौसर के खेल का बड़ा शौक है, पर उसे खेलना आता नहीं है। हम उसे खेलने के लिए न्यौता दें तो क्षत्रियोचित धर्म जानकर युधिष्ठिर अवश्य मान लेगा। तुम तो जानते ही हो कि मैं मंजा हुआ खिलाड़ी हूँ। तुम्हारी ओर से मैं खेलूंगा और युधिष्ठिर को हराकर उसका सारा राज्य और ऐश्वर्य, बिना युद्ध के, आसानी से छीनकर तुम्हारे हवाले कर दूंगा।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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